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________________ वीरशैव धर्म में मृत्यु का विचार - चन्द्रशेखर महास्वामी जन्म और मरण की पुनरावृत्ति को संसार-चक्र कहा जाता है। प्रत्येक जीवात्मा जन्म से लेकर मरणपर्यन्त और मरण से लेकर जन्मपर्यन्त निरन्तर यात्रा करती ही रहती है। यह यात्रा अनादि काल से चली आ रही है। इसलिए जन्म-मरण रूपी संसार को शास्त्रकारों ने अनादि प्रवाह रूप माना है। इस संसार में प्रत्येक वस्तु में क्षण-क्षण में परिवर्तन होते रहते हैं। लेकिन उसका आभास जीवात्मा को नहीं होता। त्योहारों में हम लोग अपने इष्टदेव के सामने दीप जलाते हैं। दस दिन तक उसे यथावत् संभालते रहते हैं और उसे अखण्ड ज्योति मानते रहते हैं। वस्तुतः देखा जाए तो उस दीपक की ज्योति अखण्ड नहीं रहती। उस ज्योति के सजातीय ज्योति का प्रवाह निरन्तर ही ऊर्ध्व दिशा में बहता रहता है। सजातीय निरन्तर धारा के कारण हमें ज्योति के अखण्ड रूप का भ्रम हो जाता है। इसी प्रकार यह संसार. चक्र षडविध विकारों से युक्त होकर निरन्तर चलायमान होता रहता है। शास्त्रकारों ने प्रत्येक वस्तु व व्यक्ति के लिए अस्ति, जायते, विवर्धते, विपरिणमते, अपक्षयिते और विनश्यते इस प्रकार षड्विध विकारों को माना है। माता के गर्भ में जब शिशु के अस्तित्व का आभास होने लगता है उसे अस्ति कहा गया है। नौ मास तक गर्भ में सभी अवयवों के विकास के बाद जब प्रसव होता है वही जायते नामक दूसरा विकार है। जन्म के बाद अन्न और पानी से शिशु का स्थूल शरीर धीरे-धीरे बढ़ते हुए एक निश्चित् सीमा तक पहुँच जाता है उसे विवर्धते विकार माना जाता है। उसके बाद शरीर के सभी धातु और अवयव परिपुष्ट हो जाते हैं उसे विपरिणमते नामक चतुर्थ विकार माना जाता है। परिपक्वता के बाद धीरे-धीरे क्षय होना प्रारम्भ हो जाता है इस स्थिति को अपक्षयिते नामक पाँचवां विकार माना जाता है। उसके बाद जब शरीर से प्राण आदि सूक्ष्म तत्त्व निकल जाते हैं तो उसे विनश्यति अर्थात् मरण-रूपी छठा विकार माना जाता है। - अब हमें जन्म और मरण के बारे में गम्भीर रूप से चिन्तन करना आवश्यक हो जाता है। छान्दोग्योपनिषद् में पंचाग्नि विद्या के द्वारा मनुष्य की उत्पत्ति की बात वैज्ञानिक ढंग से
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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