________________ जीवन की मृत्यु सहेली है __- रामप्रवेश शास्त्री मृत्यु को सभी धर्मों ने मनुष्य का सच्चा मित्र बतलाया है। वह है भी, लेकिन उसके नाम से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि सच्चे मित्र से दिल खोलकर मिलना तो दूर रहा, उसका नाम सुनना भी गँवारा नहीं है। वास्तविकता यह है कि मरना न हो तो जीवन नीरस और निरर्थक बन जाये। फिर इस विरोधाभासी आचरण का रहस्य क्या है? मृत्यु की अवधारणा सारे संसार में एक सी नहीं है। एक देश में भी भिन्नता मिलेगी। यहाँ तक कि एक धर्म भी उसके प्रति एक-सा व्यवहार नहीं करता। क्योंकि कोई ऐसा धर्म नहीं है जो कम-से-कम दो शाखाओं में विभाजित न हो। मृत्यु की अवधारणा सम्बन्धी कुछ पंक्तियाँ, काव्य की, यहाँ उद्धृत हैं - कफन बढ़ा तो किसलिए, नज़र तू डबडबा गई? सिंगार क्यों सहम गया, बहार क्यों लजा गई? है जन्म क्या, है मौत क्या, बस इतनी-सी तो बात है, किसी की आँख खुल गई, किसी को नींद आ गई। "नीरज" जी ने कितने सरल ढंग से खुलासा कर दिया है - जन्म और मौत का। और ऐसी ही एक परिभाषा बेधड़क जी ने दी है - ज़िन्दगी एक है सेन्टेन्स अपने आप समझो, इसके शब्दार्थ में ही पुण्य और पाप समझो। जवानी क्या है? है डैस, बुढ़ापा कोमा, बेधड़क मौत को तुम एक फुलस्टाप समझो। दो पंक्तियाँ, बड़ी सादगीपूर्ण, पेश करने का मन हो रहा है - मुसाफिर का सफर से लौटकर अपने वतन जाना। इसी को मौत कहते हैं, यही होता है मर जाना।।