________________ प्रस्तावना धारणा तो उसी की बनती है जो पूरा हो चुका होता है।” सबसे विचारणीय बात तो यह है कि मृत्यु होती किसकी है? क्योंकि शरीर जड़ होता है और आत्मा अभय / अतः विद्वान् लेखक को ऐसा नहीं लगता है कि मृत्यु की कोई अवधारणा बनती भी है। फिर भी उन्होंने मृत्युसम्बन्धी कई आयाम उपस्थित किये हैं, जैसे मृत्यु के लिए प्रयुक्त प्रमुख शब्द महाप्रयाण, विदेहमुक्ति, चिरनिद्रा, स्वर्गवास, मरना-मारना। प्राण के दस भेद, मृत्यु की कामचलाऊ अवधारणा, मृत्यु के चार प्रकार, जीवन और मृत्यु एक-दूसरे के पूरक, मृत्यु निश्चित् अथवा अनिश्चित् तथा मृत्यु साध्य या साधन / दार्शनिक लेखक ने इस प्रकार के कई प्रश्न उठाये हैं। श्री त्रिलोकनाथ मिश्र ने ज्योतिष-शास्त्र के अनुसार मृत्यु पर विचार किया है। ज्योतिष के दो प्रमुख विभाग हैं। एक गणित और दूसरा फलित इन दोनों का वही सम्बन्ध है जो शब्द और अर्थ का। सूर्य सिद्धांत ज्योतिष का आर्से ग्रन्थ है। इसके अनुसार मृत्यु के कई प्रसंग और पक्ष हैं। शुभ और अशुभ ग्रहों के अस्तित्व के अनुसार मृत्यु का विचार किया जाता है। जैसे जातक के जन्म अनुसार माता और पिता की मृत्यु का समय, स्त्री की मृत्यु, सन्तान की मृत्यु, ग्रह-स्थिति के अनुसार अल्पायु का विचार, मारकेश का विचार, मृत्यु समय के लग्न का ज्ञान, मृत्यु का स्थान, ग्रहयोगानुसार मृत्यु कारण तथा ग्रहों से मृत्युकारी रोगों का अनुमान / ज्योतिष से भिन्न अन्य शास्त्रों में भी मृत्यु पर विचार किया गया है। गरुड़ पुराण में मृत्यु के अंतिम क्षण तथा मृत्यु के पश्चात् मृतक की आत्मा की यात्रा और तत्सम्बन्धी अनुभव का विषद् वर्णन है। ज्योतिष-शास्त्र में मृत्यु की अवधारणा दैहिक स्तर तक ही सीमित है। उपनिषद् और पुराण ने इसकी अवधारणाओं को और अधिक व्यापक बनाया है। गरुड़ पुराण मृत्यु के कर्मकाण्ड का एक आवश्यक अंग है। ज्योतिष भी कर्मकाण्ड का अंग है। . श्री संतोष कुमार मिश्र ने मृत्यु के कर्मकाण्ड पर प्रकाश डाला है। मृत्यु सार्वभौमिक है, अपरिहार्य है। मोक्ष (मुक्ति) दुर्लभ है। किसी को ही मिलता है, इसके लिये प्रभुकृपा तथा कठिन तपस्या की अपेक्षा है। मृत्यु के बाद जन्म लेने की बाध्यता है। मोक्ष जन्म-मरण दोनों से मुक्ति है। हिन्दू संस्कार मोक्ष के साधन हैं। इस लोक की अपेक्षा परलोक का मूल्य अधिक है। मरणोत्तर संस्कार परलोक में मृतक के भावी सुख एवं कल्याण के धारक हैं। इसीलिये इनका मूल्य है। मृत्यु के पश्चात् अपने विशिष्ट स्थान की प्राप्ति में मृतक की सहायता करना जीवित सम्बन्धियों का पावन कर्त्तव्य है। मृत्यु संस्कार - पूर्वा, मध्यमा तथा उत्तरा - तीन चरणों में सम्पन्न होते हैं। लेखक ने इसकी सविस्तार प्रस्तुति की है। पूर्वा में वैतरणी, भूमियोग, शवयात्रा, सभी विधि के दाह संस्कार से लेकर अशौच, अस्थि संचय, दशगात्र, श्राद्धकर्म तथा पंचनख तक समाहित किया गया है। दशगात्र के पश्चात् सपिण्डीकरण तक के श्राद्ध कर्मों का उल्लेख मध्यमा क्रिया में वर्णित है। उत्तर क्रिया व्यापक है। इसमें सभी श्राद्ध कर्मों का विस्तार से वर्णन है। अन्त में लेखक ने पितरों से सम्बन्धित पणे का भी उल्लेख किया है।