________________ मृत्यु की अवधारणा - एक समाजशास्त्रीय अनुदृष्टि 177 तथाकथित लोकतंत्रात्मक एवं समाजवादी समाज के सर्वहारा प्रभाव में व्यक्ति का अस्तित्व निःशेष हो गया है। ____ अस्तित्ववाद दर्शन न होकर एक प्रकार की दार्शनिक प्रवृत्ति है। क्योंकि परम्परागत दर्शन में किसी सर्वव्यापी सार-तत्त्व को खोजने का प्रयास किया जाता है, परन्तु अस्तित्ववादी सार-तत्त्व से पूर्व “अस्तित्व के प्रश्न से संबंधित है। मनुष्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पूर्व “मनुष्य का अस्तित्व क्या है?” इस प्रश्न का उत्तर खोजना आवश्यक है। अस्तित्व के बाद ही सार-तत्त्व की बात करना तर्कसंगत प्रतीत होता है। डेकार्ट का प्रसिद्ध उद्धरण - “मैं सोचता हूँ, इसलिए मेरा अस्तित्व है" अस्तित्ववादी द्वारा स्वीकार्य नहीं है। उसके अनुसार जब तक मनुष्य का अस्तित्व ही नहीं है, तब तक वह विचार कैसे कर सकता है। क्योंकि विचार करने के सामर्थ्य के पूर्व विचार करने का अस्तित्व आवश्यक है। अतः अस्तित्ववादी डेकाटें के वाक्य को संशोधित कर इस प्रकार प्रस्तुत करता है, मेरा अस्तित्व है अतः विचार के लिए मेरे अन्दर एक पूर्वापेक्षा है। मार्टिन हाइडेगर जो एडमण्ड हुसर्ल के विद्यार्थी थे इस परिप्रेक्ष्य के प्रमुख व्याख्याता थे। मार्टिन हाइडेगर इस विचार के पोषक हैं कि हमारा अस्तित्व मृत्योन्मुख सत् है। मृत्यु के संदर्भ में सरलतम बात यह है कि प्रत्येक मनुष्य को स्वयं अपने लिए मृत्यु का व्यक्तिकरण अवश्य कर लेना चाहिए। जब मैं अपने मित्र की मृत्यु का समाचार पाता हूँ, उसकी अन्त्येष्टि क्रिया में सम्मिलित होता हूँ, अथवा सड़क पर जाती हुई अर्थी के पीछे उस समय फँस जाता हूँ और मेरी गति मन्द हो जाती है, जब मैं अपनी नयी नियुक्ति को प्राप्त करने की कल्पना के साथ होता हूँ, तब मैं मृत्यु का साक्षात्कार सत् के रूप में न कर केवल सामाजिक रूप में, वस्तुगत घटना के रूप में करता हूँ। मेरे लिए मृत्यु तब तक अपना सही अर्थ देना आरम्भ नहीं करती जब तक मैं यह नहीं मान लेता हूँ कि मृत्यु अपने गम्भीर अर्थों में “मेरी मृत्यु" है, कुछ ऐसी वस्तु जो मेरे ऊपर भी घटित होगी। अर्थात् मृत्यु मेरे स्वयं के आत्मत्व की "तथ्यता’ का अंग है। यह कुछ ऐसी वस्तु नहीं है जिसे भावात्मक रूप में आत्मा की भावी संभाव्यताओं में से एक के रूप में अनुभव किया जाना है। “मैं जो कुछ करता हूँ उसकी परवाह न करते हुए यह मुझ पर घटित होगी।” यह मानो मुझे ठीक उसी समय प्रदान कर दी गयी है जब जन्म के द्वारा आत्मा के रूप में मुझे अस्तित्व प्रदान किया गया है। मेरे स्वयं के अस्तित्व की तथ्यता से सामना करने वाले अंग के रूप मेरी स्वयं की मृत्यु के विषय में ऐसी सीधी बात करना भी मेरे लिए प्रामाणिक अस्तित्व रखने के लिए आवश्यक है। जब तक मैं मृत्यु को अपने से दूर एक ऐसी वस्तु के रूप में जो सामान्य मनुष्यों पर घटित होती है, रखता हूँ अथवा जब तक मैं इसका विचार कुछ समय तक दूर कर देता हूँ, जब तक दूर का कल, जिसमें यह घटित होगी, नहीं आता, तब तक मैं अपने अस्तित्व की प्रकृति को पूर्णतः मान्यता प्रदान नहीं करता हूँ। मैं “स्वयं” बनने के लिए मुझे अपने अस्तित्व के केन्द्रीय तत्त्व के रूप में मृत्यु का आलिंगन खुले रूप में अवश्य करना चाहिए।