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________________ प्रस्तावना और रात्रि मृत्यु हैं, अग्नि, वायु, सूर्य और चन्द्रमा मृत्यु हैं। यहां जिसे मृत्यु कहा गया है वे मृत्यु के हेतु हैं। कारण और कार्य में अभेद मानकर उनकी मृत्यु रूपता प्रतिपादित की गयी है। कठोपनिषद् में मृत्यु को परमेश्वर (अनिर्वचनीय देवी) के उपसेचन (भोज्य वस्तु के साथ लगाकर खाने वाला व्यंजन) कहा गया है। ऐतरेयोपनिषद् में मृत्यु को अपान रूप कहा गया है। भगवान कृष्ण ने स्वयं को यम, काल और मृत्यु कहा है। श्री कपिलदेव पाण्डेय ने विष्णु पुराण तथा अग्नि पुराण में विद्यमान यम गीताओं के संदर्भ में मृत्यु की व्याख्या की है। आयुष्य-समाप्ति का नाम मृत्यु है। मृत्यु के देवता यम माने गये हैं। यम के चौदह पर्यायवाची शब्दों में तीन विशेष महत्त्वपूर्ण हैं - यम, काल और वैवस्वत / विद्वान् लेखक ने इसकी व्याख्या की है। यमराज अर्थात् मृत्यु देवता को सूर्य का पुत्र वैवस्वत बताया गया है। काल का एक अर्थ समय भी होता है, जो सूर्य से ही उद्भूत होता है। सूर्य की गति से ही दिन-रात, सौरमास, संक्रान्ति, वर्ष, अयन्, युग और कल्प बनते हैं। लोक व्यवहार में मृत्यु को व्यक्ति विशेष के कायाजीव का काल आ जाने की बात कही जाती है। परिवर्तन की प्रक्रिया के अन्तर्गत शरीरापचय हेतु काल उपस्थित होने पर मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के दो पर्याय हैं - मरण और यम। इस लोक में जो कुछ भौतिक या स्थूल है उसकी मृत्यु होती है तथा जो देश-काल एवं कारण-कार्य-नियम से परे है उसकी कभी मृत्यु नहीं होती, वह मृत्युरहित है, वह अमर है। शरीर की मृत्यु होती है, आत्मा की नहीं। यमगीता में बताया गया है कि विष्णु की भक्ति ही जन्म-मृत्यु के चक्र से किसी को मुक्ति दिला सकती है और अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष की ओर प्रवृत्त कर सकती है। श्री बंशीधर त्रिपाठी ने गीता के संदर्भ में प्रकृति, पुरुष एवं मृत्यु की व्याख्या की है। गीता स्वयं उपनिषद् है, विद्या है, योगशास्त्र है। गीता में जहां कहीं भी आत्मतत्त्व का विवेचन किया गया है, उसमें बार-बार यह बात कही गयी है कि आत्मतत्त्व नित्य है, अविनाशी है, अप्रमेय है, अछेद्य है, अजर है, अमर है, त्रिगुणातीत है, किंवा स्वयं परमात्म तत्त्व है। जीव रूप में देह में स्थित है। आत्मतत्त्व का ही दूसरा नाम पुरुष है। प्रकृति आत्मतत्त्व से भिन्न सत्ता है। पुरुष जंब प्रकृति से संयोग की स्थिति में आता है तो वह देहगत हो जाता है। जंब पुरुष अथवा जीव देह से पृथक् होता है तो इस स्थिति को ही मृत्यु कहते हैं। पार्थक्य के इस क्रम में मृत्यु देह की होती है, जीव की नहीं, देह की मृत्यु भी देह के विनाश के अर्थ में नहीं होती। मृत्युक्रम में पंचभूतों से निर्मित देह तत्त्व भूतों में लौट जाते हैं। भूतों का लौटकर अपनी मूल स्थिति में जाना ही मृत्यु है। मृत्यु की घटना पुराने वस्त्रों को उतारने जैसी है। पुनर्जन्म की घटना नये वस्त्रों को धारण करने जैसी है। गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में जीव और देह के सम्बन्ध को लेकर जो रूपक बांधते हैं, उसका स्वर गीता से भिन्न है। गोस्वामी जी मानते हैं कि प्रकृति जड़ है और जीवन चेतना। इन दोनों के बीच मिलन की एक गांठ बन गयी है। यह गांठ इतनी उलझ गयी है कि इसे सुलझाना सब जीवों के बस की बात नहीं है। गोस्वामी जी के अनुसार देह में जीव की स्थिति वही है
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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