________________ मृत्यु - सच्ची या झूठी? 143 केवल माता-पिता से ही नहीं जब से जीव बना तभी से इकट्ठा होते रहते हैं और सन्तान में संक्रमित होते जाते हैं। पर यह आवश्यक नहीं कि निकटतम और तत्काल के माता-पिता के ही गुण-अवगुणों के ही जीन्स संतान में आते हैं। कभी-कभी आ भी जाते हैं और संतान के गुण-अवगुण, सूरत-स्वरूप माता-पिता से मेल खाते दिखते हैं, पर, निश्चित् नहीं। जीन्स की संख्या बहुत बड़ी होती है और माता-पिता के सारे जीन्स उन दोनों के गुणसूत्रों में व्यवस्थित सजे रहते हैं। वे जीन जीवन के प्रारम्भ से ही इकट्ठे होते रहते हैं। माता के अलग तथा पिता के अलग प्रकार से आये हुए होते हैं। माता के डिम्ब और शुक्राणु में उनके सम्मिश्रण की संख्या और प्रकार क्रमचय और संचय की गणितीय विधि से मिलते हैं। यह मिश्रण ही नवजात शिशु के लिये भाग्य का निर्माण करता है। इसीलिए बहुधा दो भाई या बहन स्वभाव में ही नहीं, स्वरूप में भी न तो एक जैसे और न ही माता-पिता के स्वरूप और स्वभाव से मिलते-जुलते होते हैं। इसीलिए संसार में दो बच्चियाँ या दो बच्चे भी एक से नहीं होते। संभवतः हर शिशु एक अलग साँचे में ढला करता है और पैदा होते ही प्रकृति साँचा तोड़ देती है ताकि हर बच्चा अपने किस्म का अलग, अकेला, अनूठा और अद्वितीय रहे, वैसा और कोई दूसरा, सूरत में भी और सीरत में भी न हुआ हो, न है, न होगा। स्पष्ट लगता है कि हम जो और जैसे हैं अपने किए कर्मों के फलस्वरूप ही हैं। पुनर्जन्म का सिद्धान्त कर्मफल से ही संयुक्त और संबद्ध है। वर्तमान जन्म पिछले जन्मों के मातापिता के शुभाशुभ कर्मों का फल है। अगले जन्म का आधार वर्तमान तथा पिछले जन्मों की कर्म राशि का अतिविशिष्ट या संयोगवशात् विधि से निर्मित होता है। सुख-दुःख बिना कर्म किये प्राप्त हो कैसे सकते हैं? जैसा कर्म वैसा फल। नहीं तो विधि के विधान में अन्याय, अकर्त्तव्यता, अकर्मण्यता, अशुभ, अहित, कारणाभाव, अकृत्य और अक्षम्य अपराध माना जायेगा इसे। शरीर तो बनता है उन सभी कर्मों के कारण जो तब से होते ही आ रहे हैं जब से जीव बना था। संभवतः मृत्युभय भी पूर्व जन्मों के संस्कारों से ही पैदा होता है। फिर पूर्वजन्म का स्मरण क्यों नहीं? बड़ा बालक बचपन की बातें भी तो याद नहीं रख पाता। हम भूल जाते हैं कि पूर्वजों का अपना सारा जीवन और नूतन संस्कारित जीवन शिशु में कार्य करते रहते हैं। माता-पिता ही तो शिशु के रूप में रूपान्तरित होते रहते हैं, अर्थात् शिशु ही माता-पिता के पुनर्जन्म रूप में प्राप्त होता है। मानव भी तो अन्य जन्तुओं की तरह का एक जन्तु है। उसकी कोशिकाओं के केन्द्रक में कुछ सूत्रनुमा रचनाएँ दिखायी देती हैं। इनको गुणसूत्र कहते हैं। ये आकृति, माप और रचना में अनेक प्रकार के होते हैं फिर भी ये एक प्रकार के जीव में एक ही तरह के होते हैं। मनुष्य में माता और पिता में तेईस-तेईस जोड़े होते हैं। ये द्विसूत्री होते हैं। स्त्री में (22 जोड़े ए + X मादा गुण + X मादा गुण) और पुरुष में (22 जोड़े ए + X मादा गुण + Y पुरुष गुण) [ए = समजात, “आटोझोम्स"] माता से डिम्बाणु मिलता है और पिता से अनेकानेक शुक्राणु / इस प्रकार पुरुष विषम युग्मिकी होते हैं। उसमें दोनों लिंग गुण X और Y. होते हैं।