________________ 142 मृत्यु की दस्तक मानने को विवश हो गये हैं। लोग इस कल्पना को बड़ी ही पुरानी मानकर इसकी अवहेलना करते रहे हैं। प्रकृति का निश्चयात्मक, निश्चिन्त, निश्चल और नितान्त निर्विवाद नियम है कि जो जन्मता है, उसे मरना पड़ता ही है। मृत्यु ही जीवन का द्वार है। जीवन भर हम मरने ही की क्रिया तो करते रहते हैं। मृत्यु सदा खड़ी रही है सामने / अभिज्ञ लोगों का दृढ़ विश्वास है कि अस्तित्व अनन्त है। ___ न्याय मतवादियों का दृढ़ विश्वास है कि जीवन के अनुभव कभी विलुप्त नहीं हो सकते, वे कभी नष्ट भी नहीं किये जा सकते। दिखें, भले ही नहीं, पर अनुभवजन्य कृतियाँ अदृष्ट रूप में बनी रहती हैं। वे परिणामस्वरूप प्रवृत्ति झुकाव, आसक्ति, आदि संस्कारों के रूप में इकट्ठी होती रहती हैं। पर, मरने के बाद शरीर तो किसी का भी नहीं रहता। फिर मृत्यु के बाद स्मृति बनी कैसे, कहाँ और क्यों रहती है? सृष्टि के समक्ष अहम् प्रश्न रहा कि इस अनुभव को बनाये कैसे रखा जाये? अमीबा को अजर-अमर बनाकर वह सदा पछताती रही। उसके अमीबा के गुण-दोष आज भी ज्यों-के-त्यों रह गये। संख्या में अपार वृद्धि का क्या होगा? फिर, उसने जीवों में नर-मादा की रचना की। फिर तो संहार-प्रथा प्रारम्भ हो गयी। मृत्यु ने अपना जाल फैला-बिछाकर किसी-न-किसी फरेब में फँसाना प्रारम्भ कर दिया। आज मृत्यु महारानी है समूची सृष्टि की। जीवेष्णा की ललक बलवती होती गयी, जीने की उत्सुकता और आकांक्षा बढ़ती चली गयी और मृत्यु का भय ही नहीं मृतक का भय भी सबसे . बड़ा भय हो गया। लोग जीवन चाहे जैसा जीयें मरना नहीं चाहते। अमीबा को ज्यों-कात्यों रखते हुए प्रकृति ने छ: करोड़ वर्ष लगा दिये अनेकानेक प्रकार के जीवों को बनाते हुए, विकसित और उद्विकसित करते हुए, क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से मनुष्य का निर्माण करने में। लगभग सारे द्विलिंगी जीव मृत्यु को धोखा देने, छलने और मरकर भी जीते रहने का काम करने लगे। लैंगिक जनन प्राकृतिक प्रयास है मरकर भी समाप्त न होने का, कहीं और जगह पड़े रहने का और समय आने पर प्रकट हो जाने का। पर प्रकृति ने ईश्वर, आत्मा, परमात्मा से कोई सम्बन्ध नहीं रखा। वह ईश्वर की नहीं, दासी है रसायनज्ञों की। ईश्वर के प्रयास पर नहीं, कृत्य पर नहीं, कृपा पर नहीं, मनुष्य के प्रयुक्त प्रयासों, श्रमपूर्ण आयासों और कड़ी कोशिशों पर। कम-से-कम मनुष्य की मौत तो उसके लिए मर चुकी है। उसने जीते रहने की असली तरकीब निकाल रखी है। वह, फिर भी न जाने क्यों डरता रहता है। शायद, मरने के बाद के डर से। आधुनिक प्राणी-विज्ञान ने बताया है कि माता-पिता के चरित्र, कर्म और अनुभव संस्कारों, प्रवृत्तियों, लगावों और आसंगों के सुरचित और सुनिर्मित रासायनिक यौगिक अपने आप कार्यकारी इकाई के रूप में संकलित होते रहते हैं और जीव के गुणों-अवगुणों को देते और प्रभावित करते रहते हैं। इन्हीं को जीन्स कहा करते हैं। ये आनुवांशिक इकाई के रूप में होते हैं। ये जीन्स रहते हैं व्यवस्थित और सजे-सजाये स्वरूप में गुणसूत्रों में। ये जीन्स