________________ 112. मृत्यु की दस्तक लोकाचार दोनों विधियों का पालन किया जाता है। जब मरणासन्न व्यक्ति के परिजनों को उसकी मृत्यु के आसन्न होने का पूर्ण विश्वास हो जाता है, तभी से मृत्यु का कर्मकाण्ड आरम्भ हो जाता है। यह कर्मकाण्ड मुख्यतः तीन चरणों में सम्पादित होता है - पूर्वा, मध्यमा एवं उत्तरा। मृत्यु-संस्कार को सम्पादित करने वाले को “कर्ता" कहते हैं। धार्मिक मतानुसार जीवात्मा मृत्यु के पश्चात् “पुम" नाम के नरक में चली जाती है, जो इस नरक से त्राण दिलाने में सहायक होता है उसे ही पुत्र कहते हैं। "पुम नाम नरकायतेत ते पुत्रः।" इसलिये कहा गया है कि "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' अर्थात् जिसे पुत्र नहीं है उसकी मुक्ति नहीं है। इसलिये विष्णु पुराण के अनुसार मृत्यु का कर्मकाण्ड करने वाला अधिकारी व्यक्ति पुत्र, प्रपौत्र अथवा भ्राता की संतान पत्रवत यह कर्मकाण्ड कर सकते हैं। शंखवचनानुसार "पुत्रभावे पत्नीस्यात् तद्भावे च सहोदरः तद्भावे भ्रातिः भ्राता तद्भावे भ्रात्री संततिः" अर्थात् पुत्र के अभाव में यह कर्मकाण्ड पत्नी द्वारा, पत्नी के न रहने पर सगे भाई द्वारा, उसके न रहने पर चचेरे भाई द्वारा, उसके भी न रहने पर भाइयों की संतान द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। याज्ञवल्क्य के मतानुसार "तत्समः पुत्रिका पुत्रः" अर्थात् दौहित्र (पुत्री का पुत्र) भी इस कर्मकाण्ड को सम्पादित कर सकता है। लेकिन जो व्यक्ति इस कर्मकाण्ड को सम्पन्न करेगा वह उस समय पुत्रवत् ही होगा। इस प्रकार "अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' स्वयं खंडित हो जाता पूर्वा क्रिया यह क्रिया मृत्युकाल से प्रारम्भ होकर दस दिनों तक रात्रिपर्यन्त चलती है - 1. वैतरणीदान - सनातन (हिन्दू) शास्त्रों के अनुसार यमलोक के द्वार पर वैतरणी नदी प्रवाहित होती है जिसे प्रायः काली गाय ही पार कर सकती है। वैतरणी को सरलता से पार करने के उद्देश्य से कर्ता मृत्यु को प्राप्त हो रहे व्यक्ति के हाथों में काली गाय की पूँछ का स्पर्श कराकर गोदान की क्रिया को सम्पन्न करता है। 2. भूमियोग - धार्मिक मान्यतानुसार मनुष्य को अंतिम समय में माया-मोह से मुक्त होकर शरीर का परित्याग करना चाहिए। इसके प्रतीक स्वरूप अंतिम समय में परिजन शरीर का परित्याग करने वाले को खुले आकाश के नीचे बंधन रहित परिवेश में भूमि पर लिटा देते हैं। इसका उद्देश्य शरीर त्याग करने वाले को उसके संज्ञान में ही माया-मोह रहित हो जाने की प्रतीति कराना है। मृत्म शरीरम् उत्श्रज काष्ट लोष्ट समंछितै। विमुखा बांधवा यन्ति धर्म तत्रं गच्छति।। मृत्यु के उपरांत जीवात्मा मृत शरीर को लकड़ी और लौह के समान पृथ्वी पर छोड़कर चली जाती है। बिछुड़े हुए बंधु-बांधव कुछ दूर जाकर वापस आ जाते हैं,