________________ 2 . .. मृत्यु की दस्तक देव को मनुष्यलोक में पहुंचाती है। हिन्दुओं में एक और लोक की कल्पना है। वह है . पितरलोक / पारमार्थिक दृष्टि से मृत्यु विश्व-व्यवस्था को उजागर करने वाली द्विगुण सत्य है। यह पार्थिव मार्ग की विपदा का अन्त करती है और आकाशीय मार्ग का द्वार खोलती है। मृत्यु एक ऐसा दृश्य-प्रपंच है जिससे समस्त विश्व में नैसर्गिक एकत्वता बनी रहती है। विश्व के रूपान्तरण में भी इसकी अहम् भूमिका है। यह परिवर्तन के द्वारा निरन्तर नवजीवन प्रदान करती रहती है। बौद्ध और जैन धर्मों में भी मृत्यु के इस पक्ष पर गहन विचार किया गया है। इसी आधार पर इन धर्मों का वैदिक, औपनिषदिक और पौराणिक परम्पराओं से सामंजस्य स्थापित होता है। यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्मों ने भी मृत्यु का रहस्योद्घाटन किया है। इनके अनुसार ईश्वर (गॉड) में स्थित रहकर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। ईश्वर का अवतार लेना और दुःख एवं मृत्यु को वरण करना ऐसी घटना है जिससे यह रहस्य स्पष्ट होता है। सूली पर चढ़कर ईसा मसीह ने मानव मृत्यु का हरण किया था। ऐसा कहा जाता है कि मनुष्य को पाप से मुक्त करने के लिए वे स्वयं पुनर्जीवित हुए। सेमाइटी में यह आम विश्वास है कि ईश्वर मनुष्य के जीवनकाल में भी विद्यमान रहता है। हिन्दू धर्म भी इस अवधारणा को स्वीकार करता है। इसके अनुसार ईश्वर समय-समय पर मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु के रूप में भी अवतरित होता है। सभी धर्मों में शरीर और आत्मा का भेद दर्शाया गया है तथा एक अथवा एक से अधिक ईश्वर के अवतरित होने की बात कही गयी है। आदिमजातीय संस्कृति में मृत्यु की कल्पना अन्य संस्कृतियों से भिन्न है। उनकी ऐसी मान्यता है कि पार्थिव जीवन और मरणोपरान्त की अवस्था में कोई बहुत बड़ा (मौलिक) अन्तर नहीं है। वे यह भी मानते हैं कि परलोक का जीवन पृथ्वीलोक के जीवन से अधिक सुखद और सुन्दर है। उनकी दृष्टि में मृत्यु की स्थिति जीवन के अन्य परिवर्तनों से कुछ अधिक भिन्न नहीं है। भिन्नता है नाममात्र की। पार्थिव शरीर परिवर्तनशील है। जीवात्मा मृत्यु से सातत्य बनाये रखती है। आदिमजातीय जीवन में समयबद्धता की प्रधानता है। व्यक्ति प्रत्येक संयोजन में स्वभावतः परिवर्तित होता रहता है। इस प्रकार की विश्वदृष्टि में यह मान्य है कि प्रत्येक जीव को मृत्यु और पुनर्जन्म का जोखिम बना रहता है। इस तथ्य को आध्यात्मिक सिद्धांत के आधार पर ही स्वीकार किया जा सकता है। आदिम संस्कृतियों की दृष्टि में मृत्यु जीव का निरन्तर साथी है। इनमें कर्मकाण्ड का महत्त्व है। मरणोपरान्त जीवन की कल्पना ऐसी है जो मनुष्य को अन्य प्राणी से अभिन्न तथा समस्त ब्रह्माण्ड के बीच उसे एकत्वता का बोध कराती है। सिद्धान्ततः आधुनिक संस्कृति ऐहलौकिक जीवन पर ही केन्द्रीभूत है। इसमें मरणासन्न एवं मृतक के लिये किसी प्रकार की सम्बद्धता नहीं है। आधुनिकता की मनोवृत्ति वाले लोग परम्परागत समाज के विचार-व्यवहार से सर्वथा भिन्न हैं। प्राचीन समाज के लिये जन्म और