________________ 108. मृत्यु की दस्तक हो जाता है। जब प्राण आदि पाँचों वायु अपने स्थान से चल देते हैं, उस समय मरते हुए पापी को एक क्षण भी कल्प के समान बीतता है। सौ बिच्छुओं के काटने से जो पीड़ा होती है, वैसी ही व्यथा श्वासों के निकलते समय होती है। उस जीव के मुख से (यमदूत के भय से) लार और फेन गिरने लगते हैं। अतः पापियों का प्राणवायु गुदा के मार्ग से बहिर्भूत होता है। प्राण निकलते समय प्राणियों को यमदूत मिलते हैं जो क्रोध से लाल नैन वाले, भयानक मुख, पाश और दण्ड को लिये, नग्न शरीर, दाँतों को पीसते हैं। टेढ़े मुख वाले विशाल नख- . रूपी शस्त्र वाले, कौओं के समान काले शरीर वाले, ऊपर को उठे हुए केशवाले यमदूत वहाँ आकर उपस्थित रहते हैं। वह प्राणी उन दूतों को देखकर भय से मल-मूत्र का त्याग करने लगता है। वह जीव हाय-हाय करता हुआ शरीर से निकल कर अंगुष्ठमान शरीर को धारण करता है और मोहवश अपने घर को देखता है और यमदूतों द्वारा उसी समय पकड़ लिया जाता है, जैसे अपराधी पुरुष को राजा के सिपाही पकड़कर ले जाते हैं। इस प्रकार मार्ग में ले जाते हुये वे यमदूत उस जीव को धमकी देते हैं तथा बारम्बार नरकों के भयानक वर्णन करते जाते हैं। इस वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि मृत्यु का क्षण अत्यन्त भयावह होता है। इस समय व्यक्ति के मन में भय उत्पन्न होता है और मृतक की आत्मा (अंगुष्ठमान शरीर) की कठिन यात्रा प्रारम्भ होती है। यमलोक पहुँचने पर वह जीव यमराज का दर्शन करता है तथा घोर नरक की यातना को देखकर एक मुहूर्त में यमराज की आज्ञा से फिर मनुष्यलोक में आता है। वह जीव यहाँ आने पर अपने पूर्व शरीर में पुनः प्रवेश करने की इच्छा करता है परन्तु उसे यमदूत पाश में बांधे रहते हैं। इस कारण क्षुधा-तृषा के दुःसह दुःख को वह विकल होकर सहता और रोता है। तब पुत्रों द्वारा मृत्यु के स्थान पर दिये गये पिण्ड और मरने के समय दिये हुए दान को वह जीव खाता है। जिसका पिण्डदान नहीं होता, वे निर्जन वन में कल्प भर प्रेतयोनि में दुःखपूर्वक भ्रमण करते हैं। छ: करोड़ कल्प तक बिना भोगे कर्म का क्षय नहीं होता है और जीवों को बिना यम की यातना भोगे मनुष्य का जन्म भी नहीं मिलता। इसी से दस दिन पुत्र को पिण्डदान करना चाहिये। इस वर्णन से यह भी स्पष्ट होता है कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात् भी अपने परिवार पर आश्रित है। अर्थात् मृत्यु और जीव की सातत्यता बनी रहती है। शरीर की मृत्यु होती है। मृत्यु के पश्चात् की दो अवस्थायें हैं। एक है - पितरलोक में निवास करना, दूसरा है - फिर से मृत्युलोक में जन्म लेना। मृतक के पुत्रादि समय-समय पर पितृश्राद्ध करते हैं। अतः उनके लिए मृत्युलोक में पितर के पुनः जन्म लेने की बात असंगत है। शास्त्रों में मृतक के लिये शान्ति तथा नारायण बलि आदि का विधान है। इससे मृतक को पितरलोक में पहुंचने का मार्ग सुलभ हो जाता है। देवलोक की तरह पितरलोक भी अमरता का आधार है।