________________ मृत्यु की अवधारणा एक अनुचिन्तन ... - वशिष्ठ नारायण सिन्हा मृत्यु के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि व्यक्ति का जब जन्म होता है उसी समय से मृत्यु की ओर उसका प्रस्थान प्रारम्भ हो जाता है। व्यवहार में देखा जाता है कि कोई व्यक्ति जब साठ वर्षों का हो जाता है तब वह बूढ़ा घोषित कर दिया जाता है। यदि वह किसी सेवा में है, विशेषकर सरकारी सेवा में तो सरकार उसे सेवामुक्त कर देती है। समाज इसे मानता है और वह व्यक्ति भी स्वयं स्वीकार कर लेता है कि वह बूढ़ा हो गया है। तबसे मृत्यु भी उसके दरवाजे पर अपनी दस्तक किसी-न-किसी रूप में देना शुरू कर देती है। कोई उस दस्तक को जल्द समझ जाता है; कोई उसे देर से समझता है और कोई-कोई उसे नहीं भी समझ पाता है। अतः मृत्यु की दस्तक को अथवा मृत्यु को समझना बूढ़े लोगों का काम है। जो युवक हैं, युवती है उन्हें चाहिए कि वे जीवन को समझने का प्रयास करें। इसके दो कारण दिए जा सकते हैं - 1. युवावस्था जीवन के निकट और मृत्यु से दूर होती है। इसके विपरीत वृद्धावस्था मृत्यु के निकट और जीवन से दूर होती है। 2. जीवन को समझने के बाद ही मृत्यु को समझा जा सकता है। जिसने जीवन को नहीं समझा है उसके लिए मृत्यु को समझना असम्भव है। मृत्यु की अवधारणा निरूपित करना अत्यन्त कठिन है क्योंकि इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित बाधाएँ उपस्थित होती हैं - (क) मृत्यु-सम्बन्धी न तो कोई अनुभव प्राप्त होता है और न किसी प्रकार की अनुभूति ही इसकी होती है। अनुभव आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के माध्यम से प्राप्त होते हैं। मृत्यु का बोध तो किसी भी इन्द्रिय से नहीं होता है। दिल भी मृत्यु की अनुभूति