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________________ मृत्यु की अवधारणा - भारतीय दर्शन के परिप्रेक्ष्य में 91 सुख या दुःख पाता है वह अपने पूर्व में किए हुए कर्मों के फल रूप में ही पाता है। इस आधार पर दोनों धाराओं में यह स्वीकृत है कि इस जीवन के पूर्व भी जीवन था जिसमें किए गए कर्मों का फल इस जीवन में भोगा जाता है और इस जीवन के आगे भी जीवन होगा जिसमें इस जीवन में किए गए कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। इस आधार पर उक्त दोनों धाराओं में मृत्यु-जीवन माना कि समाप्ति नहीं है अपितु माना किसी एक जीवन की समाप्ति है इसके पश्चात् दूसरे जीवन का भी पूर्ण निश्चय है। इस जीवन-मृत्यु चक्र या भवचक्र की समाप्ति दोनों धाराओं में मान्य है जिसे मोक्ष या निर्वाण के रूप में विवेचित किया जाता है। उक्त दोनों धाराओं के संदर्भ में यह एक विचारणीय प्रश्न है कि कूटस्थ, नित्य, निर्विकार आत्मा मानने पर मृत्यु एवं कर्मफल-भोग व्यवस्था की व्याख्या कैसे की जाती है? और सब कुछ क्षणिक मानने पर मृत्यु एवं फलभोग-व्यवस्था कैसे संभव होती है? यहाँ प्रथम पक्ष में तीन प्रकार के शरीर की कल्पना की जाती है स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर | इनमें मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीर जीवात्मा के साथ स्थूल शरीर का परित्याग कर देता है और दूसरे स्थूल शरीर के निर्माण की प्रक्रिया में प्रतिष्ठ हो जाता है। सूक्ष्म शरीर में पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकार, पंचतन्यात्राएं रहती हैं और उनके साथ आत्मा का सम्बन्ध बना रहता है। इसी प्रकार सृष्टि से प्रलयपर्यन्त सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर का परित्याग एवं ग्रहण करता है। जब प्रलय होता है तो सूक्ष्म शरीर भी नष्ट हो जाता है किन्तु कारण शरीर, जो अविद्या की ग्रन्थि के रूप में रहता है, विद्यमान रहता है और नयी सृष्टि होने पर पुनः सूक्ष्म शरीर का निर्माण कारण शरीर के आधार पर हो जाता है। इस प्रकार आत्मा में परिवर्तन न होने पर भी इससे संबद्ध स्थूल, सूक्ष्म आदि शरीरों का परिवर्तन या मृत्यु औपचारिक रूप से आत्मा में लागू होती है। अनित्यतावादी धारा भी प्रतीत्यसमुत्पाद के आधार पर मृत्यु के पश्चात् जन्म और कर्म फलयोग की व्यवस्था की व्याख्या करती है। इसके अनुसार मृत्यु के पश्चात् भी अविद्या एवं संस्कार अपने में परिवर्तन करते हुए प्रवाह रूप में चलते हैं तथा अगले जीवन के लिए विज्ञान, नाम रूप, षडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपादान, भव, आदि का उत्पाद करते हुए अगले जन्म की व्यवस्था करते हैं। इस प्रकार मृत्यु एवं कर्मफल-भोग की व्यवस्था चलती रहती है। जीवन, जिसका एक छोर जन्म और दूसरा छोर मृत्यु है, की अवधि को आयु कहा जाता है और इसका निर्धारण अनेक आधारों पर होता है। जिसमें प्रमुख आधार वह योनि है जिसमें प्राणी जन्म ग्रहण करता है। आयु का निर्धारण, जहाँ जीव-विज्ञान में शरीर संस्थान की संरचना के आधार पर किया जाता है, वहीं दर्शन-शास्त्र में इस योनि में प्राप्त होने वाले भोग और उसकी मात्रा पर आयु का निर्धारण होता है।
SR No.004376
Book TitleMrutyu ki Dastak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBaidyanath Saraswati, Ramlakhan Maurya
PublisherD K Printworld Pvt Ltd, Nirmalkuar Bose Samarak Pratishthan
Publication Year2005
Total Pages220
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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