________________ ( श्रीमदासमसुधासिन्धुः : त्रयोदशमो विभागः // 25 // अथ यज्ञीयाख्यं पंचविंशमध्ययनम् // . माहणकुल-संभूयो, पासि विप्पो महायसो / जायाई जमजन्नंमि, जयघोसत्ति नामश्रो॥ 1 // इन्दियग्गाम-निग्गाही, मग्गगामी महामुणी / गामाणुगामं रीयन्ते, पत्तो वाणारसिं पुरिं // 2 // वाणारसीइ बहिया, उजाणंमि मणोरमे / फासुए सिजसंथारे, तत्थ वासमुवागए // 3 // ग्रह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे / विजयघोसत्ति नामेणं, जन्नं जयइ वेश्वी // 4 // श्रह से तत्थ अणगारे, मासक्खमण-पारणे। विजयघोसस्स जन्नंमि, भिक्खमट्ठा उपट्ठिए // 5 // समुवट्ठियं तहिं सन्तं, जायगो पडि. सेहए / न हु दाहामि ते भिक्खं. भिक्खू ! जायाहि अनो॥ 6 // जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नमट्ठा य जे दिया / जोइसंगविऊ जे य, जे य धम्माण पारगा ॥७॥जे समत्था समुद्धत्तु', परं अप्पाणमेव य। तेसिमन्नमिणं देयं, भो भिक्खू ! सव्वकामियं // 8 // सो तत्थ एव पडिसिद्धो, जायगेण महामुणी। नवि रुट्ठो नवि तुट्ठो, उत्तमट्ठ-गवेसयो॥ 1 // नऽराण8 पाणहेउं वा, नवि निबाहणाय वा / तेसिं विमुक्खणट्ठाए, इमं वयणमब्बवी // 10 // नवि जाणासि वेयमुहं, नवि जनाण जं मुहं / नक्खत्ताण मुहं जं च, जं च धम्माण वा मुहं // 11 // जे समत्था समुद्धत्तु, परं अप्पणमेव य / न ते तुमं विजाणामि, यह जाणासि तो भण // 12 // तस्सऽम्खेवपमुक्खं च, अचयन्तो तहिं दियो / सपरिसो पंजलीहोउं, पुच्छई तं महामुणिं // 13 // वेयाणं च मुहं ब्रूहि, ब्रूहि जन्नाण ज मुहं / नक्खत्ताण मुहं ब्रूहि, बहि धम्माण वा मुहं // 14 // जे समत्था समुद्रत्तु परं अप्पाणमेव य / एयं मे संसयं सव्वं, साहू ! कहय पुच्छियो // 15 // अग्गिहुत्तमुहा वेया, जन्नट्ठी वेयसा मुहं / नक्खत्ताण चन्दो, धम्माणं कासवो मुहं // 16 // जहा चन्दं गहाईया, चिट्टन्ते पंजलीउडा। वन्दमाणा नमसन्ता, उत्तम मणहारिणो (जहा चंदे जहाईए, धिटुंती पंजलीउडा / णमंसमाणा घेद ती,