________________ श्रीपिण्डनियु किन ] [3 परिहायइ गुणऽणुप्पेहासु अ असत्तो॥६६४॥ अहव ण कुजाहारं, छहिं ठाणेहिं संजए / पच्छा पच्छिम-कालंमि, काउं अप्पक्खमं खमं // 665 // श्रायंके' उवसग्गे, तितिक्खया बंभचेर-गुत्तीसु / पाणिदया तवहेउँ, सारीखोच्छेयण-ट्टाए // 666 // श्रायको जरमाई रायासनायगाइ उवसग्गो। बंभवयपालणट्टा पाणिदया वासमहियाई // 667 // तवहेउ चउत्थाई जाव उछम्मासियोतवो होइ / छ8 सरीर-वोच्छेयणट्ठया होत्रणाहारो // 668|| सोलस उग्गमदोसा सोलस उप्पायणाए दोसा उ। दस एसणाएँ दोसा संजोयणमाइ पंचे // 66 // एमो थाहार-विही जह भणियो सबभाव-दंसीहिं / धम्मावस्सग-जोगा जेण न हायति तं कुजा // 670 // जा जयमाणस्स भवे. विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स / सा होइ निजरफला अज्झत्थ-विसोहि-जुत्तस्स // 671 // // इति श्रीपिण्डनियुक्तिः समाप्ता // (ग्रन्थागं 835)