________________ श्रीमत्स्थानाङ्गसूत्रम् :: श्रुतस्कंधः 2 अध्ययनं 1 ] [285 // अथ तृतीयं त्रिस्थानकायध्यनम् // प्रथमोद्देशकः / तयो इंदा पाणत्ता तंजहा-णामिदे वणिंदे दबिदे, तो इंदा पन्नत्ता तंजहा–णाणिंदे दंसणिंदे चरितिंदे, तो इंदा पन्नत्ता तंजहा–देविंदे असरिंदे मणुस्सिदे ॥सू० 111 // तिविहा विउव्वणा पन्नत्ता तंजहाबाहिरते पोग्गलए परियातित्ता एगा विकुचणा, बाहिरए पोग्गले अपरियादित्ता एगा विकुवणा, बाहिरए पोग्गले परियादित्तावि अप्परियादित्तावि एगा विकुब्वणा 1 / तिविहा विगुब्बणा पन्नत्ता तंजहा-अभंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगः विडवणा, अतरे पोग्गले अपरियादित्ता एगा विकुबणा, अभंतरए पोग्गले परियादित्तावि अपरितादित्तावि एगा विकुब्वणा 2 / तिविहा विकुचणा पन्नत्ता तंजहा–बाहिरभंतरए पोग्गले परियाइत्ता एगा विकुबण, बाहिरभंतरए पोग्गले अपरियाइत्ता एगा विगुब्बणा, बाहिरभंतरए पोग्गले परियाइत्तावि अपरियाइत्तावि एगा विउव्वणा 3 // ॥सू. 120 // तिविहा नेरइया पन्नत्ता तंजहा—कतिसंचिता अकतिसंचिता अवत्तव्वगसंचिता, एवमेगिदियवजा जाव वेमाणिया ॥सू० 121 // तिविहा परियारणा पन्नत्ता तंजहा—एगे देवे यन्ने देवे अन्नेसि देवाणं देवीनी श्र अभिजु जिय 2 परियारेति, अप्पणिजियायो देवीयो अभिजुजिय 2 परियारेति, अप्पाणमेव अप्पणा विउविय 2 परियारेति 1 / एगे देवे णो अन्ने देवा णो अगणसिं देवाणं देवीयो अभिजु जिय 2 परियारेति, अत्तणिजियायो देवीयो अभिनु जिय 2 परियारेइ, अप्पाणमेव अप्पणा विउविय 2 परियारेति 2 / एगे देवे णो अन्ने देवा णो अराणेसिं देवाणं देवीयो अभिजिय 2 परितारेति, णो अप्पणिजितायो देवीश्रो अभिजुजिय 2 परितारेति, अप्पागमेव अप्पाणं विउव्विय 2 परितारेति 3 / ॥सू. 122 // तिविहे मेहुणे पन्नत्ते तंजहा-दिव्वे माणुस्सते तिरिक्ख