________________ 64 कर्मणोगजत्व कल्पना सा जिनेन्द्राभिषेकादितोषिताखिलभव्यका / साऽपवर्गाय भव्यानां सा संसाराय पापिनाम् // 10 // जीवोऽजीवस्तथा पुण्यपापाद्याः सन्ति नेति वा / अयं विचारः प्रायेण, तस्यामेव विशेषतः // 11 // यस्तस्यामपि संप्राप्तो, नगर्या पुरुषाधमः। न युज्यते गुणैर्लोकः, सोऽधन्य इति गण्यते // 12 // तां विमुच्य न लोकेऽपि, स्थानमस्तीह मानवाः ! / संपूर्ण यत्र जायेत, पुरुषार्थचतुष्टयम् // 13 // तस्यां च मनुजगतौ नगर्यामतुलबलपराक्रमः स्ववीर्याक्रान्तभुवनत्रयः शक्रादिभिरप्रतिहतशक्तिप्रसरः कर्मपरिणामो नाम महानरेन्द्रः। यो नीतिशास्त्रमुल्लङ्घन्य, प्रतापैकरसः सदा / तृणतुल्य जगत्सर्व, विलोकयति हेलया।॥१॥ निर्दयो निरनुक्रोशः, सर्वावस्थासु देहिनाम् / स चण्डशासनो दण्डं, पातयत्यनपेक्षया // 2 // स च केलिप्रियो दुष्टो, लोभादिभटवेष्टितः / नाटकेषु परां काष्ठां, प्राप्तोऽत्यन्तविचक्षणः // 3 // नास्ति मल्लो जगत्यन्यो, ममेति मदविह्वलः / स राजोपद्रवं कुर्वन्न धनायति कस्यचित् // 4 // ततो हास्यपरो लोकान् , नानाकारैर्विडम्बनैः / सर्वान्विडम्बयन्नुच्चैर्नाटयत्यात्मनोऽग्रतः // 5 // तेऽपि लोका महान्तोऽपि, प्रतापमसहिष्णवः / तस्य यद्यदसौ वक्ति, तत्तत्सर्व प्रकुर्वते // 6 // ततश्च-कांश्चिमारकरूपेणाक्रोशतो वेदनातुरान् / नर्तयत्यात्मनः प्रीति, मन्यमानो मुहुर्मुहुः // 1 // यथा यथा महादुःखैविहलांस्तानुदीक्षते / तथा तथा मनस्युच्चैरुल्लसत्येष तोषतः // 2 // कांश्चिदर्पोधुरो भूत्वा, स इत्थं बत भाषते / भयविहलचित्तत्वादाज्ञानिर्देशकारकान् // 3 // अरे रे! तिर्यगाकार, गृहीत्वा रङ्गभूमिषु / कुरुध्वं नाटकं तूर्ण, मम चित्तप्रमोदकम् // 4 // ततश्च-काकरासभमार्जारमूषकाकारधारकाः / सिंहचित्रकशार्दूलमृगवेषविडम्बकाः // 5 // गजोष्ट्राश्वबलीवर्दकपोतश्येनरूपिणः / यूकापिपीलिकाकीटमत्कुणाकारधारिणः // 6 // अनन्तरूपास्तियश्चो, भूत्वा तच्चित्तमोदनम् / ते नाटकं महाहास्यकारणं नाटयन्ति वै // 7 // कुब्जवामनमूकान्धवृद्धबाधिर्यसंगतैः / तथाऽन्यमानुषैः पात्रैर्नाटकं नाटयत्यसौ // 8 // ईर्ष्याशोकभयग्रस्तैर्देवेषविडम्बकैः / विहितं नाटकं दृष्ट्वा, स तुष्टो बत जायते // 9 // तथा यथेष्टचेष्टोऽसौ, पुनस्तानेव सुन्दरैः / आकार?जयत्युच्चैलॊकानाटककाम्यया // 10 // विडम्ब्यमानास्ते तेन, प्राणिनः प्रभविष्णुना / त्रातारमात्मनः कश्चिन्न लभन्ते कदाचन // 11 // स हि विज्ञापनातीतः, स्वतन्त्रो यचिकीर्षति / तत्करोत्येव केनापि न निषिद्धो निवर्तते // 12 // ततश्च-कचिदिष्टवियोगात, कचित्संगमसुन्दरम् / क्वचिद्रोगभराक्रान्तं, क्वचिद्दारिद्यदूषितम् // 13 // क्वचिदापगतानेकसत्त्वसंघातदारुणम् / क्वचित्संपत्समुद्भूतमहानन्दमनोहरम् // 14 // विलय कुलमर्यादा, प्रधानकुलपुत्रकैः / अनार्यकार्यकारित्वात्, क्वचिद्दर्शितविस्मयम् // 15 // क्वचिदनुरक्तभर्तारं, मुञ्चद्भिः कुलटागणैः / नीचगामिभिराश्चर्य, दधानं सुकुलोद्गतैः // 16 // क्वचित् कृतचमत्कारं, नृत्यद्भिर्दास्यहेतुभिः / स्वागमोत्तीर्णकर्त्तव्यासक्तपाखण्डमण्डलैः // 17 // तदेवंविधवृत्तान्तप्रतिबद्धमनाकुलम् / संसारनाटकं चित्रं, नाटयत्येष लीलया // 18 // रागद्वेषाभिधानौ द्वौ, मुरजौ तत्र नाटके / दुष्टाभिसन्धिनामा तु, तयोरास्फालको मतः // 19 // मानक्रोधादिनामानो, गायकाः कलकण्ठकाः / महामोहाभिधानस्तु, सूत्रधारः प्रवर्तकः // 20 // 6 भण्यते प्र.७ द्धिविषयो न भवति. 8 नवाक्षरोऽयं पादः 9 वादका