________________ 211 ततश्च-पापोऽजीर्णज्वराक्रान्तः, स जीवो वान्तिसन्निभे / तं रटन्तमनालोच्यासत्प्रमादे प्रवर्तते // 135 // तदा निःशेषदोषौघभरपूरितमानसे / सन्निपातसमो घोरो, महामोहोऽस्य जृम्भते // 136 // युग्मम् / ततश्च तद्वशेनायं, जीवः सुन्दरलोचने ! पश्यतामेव निश्चेष्टो, भवत्येव विवेकिनाम् // 137 // मूत्रान्त्राशुचिजम्बालवसारुधिरपूरिते / निक़लं निपतत्येव, नरके वान्तिपिच्छले // 138 // लुठतीतस्ततस्तत्र, मुश्चन्नाक्रन्दभैरवान् / सहते तीव्रदुःखौघं, यद्वाचां गोचरातिगम् // 139 // तथा विचेष्टमानं च, वरगात्रि! तपोधनाः। ज्ञानालोकेन पश्यन्ति, तं जीवं शुद्धदृष्टयः // 140 // केवलं सन्निपातेन, समाक्रान्तं भिषग्वराः / अचिकित्स्यमिमं ज्ञात्वा, वर्जयन्ति महाधियः // 14 // ततश्च तदवस्थस्य, तस्य तारविलोचने ! / कोऽन्यः स्यात्त्रायको जन्तोपोरे दःखौघसागरे // 142 // अन्यच्च तदवस्थोऽपि, जीवोऽयं वल्गुभाषिणी!। प्रमादभोजनास्वादलाम्पटयं नैव मुश्चति // 143 // दोषाः प्रबलतां यान्तस्ततो मुष्णन्ति चेतनाम् / अत्यर्थं च महामोहसन्निपातो विवर्धते // 144 // एवं च स्थिते-संसारचक्रवालेऽत्र, रोगमृत्युजराकुले / अनन्तकालमासीनस्त्यक्तः सद्धर्मवान्धवैः॥१४५॥ तदिदं निजवीर्येण, जीवस्यास्य महाबलः। सन्निपातसमो भद्रे ! महामोहो विचेष्टते // 146 // किं च-प्रवर्तकश्च सर्वेषां, कार्यभूतश्च तत्त्वतः / महामोहनरेन्द्रोऽयं नद्यादीनां सुलोचने // 147 // तदेवं राजपुत्रीयो, दृष्टान्तोऽनेन सुन्दरि ! / महानद्यादिवस्तूनां, दर्शितो भेदसिद्धये // 148 // अथाद्यापि न ते जाता, प्रतीतिः सुपरिस्फुटा / भूयोऽपीदं समासेन, प्रस्पष्टं कथयामि ते // 149 // विषयोन्मुखता याऽस्य, सा विज्ञेया प्रमत्तता। तत्तद्विलसितं विद्धि, यद्भोगेषु प्रवर्तनम् // 150 // प्रवृत्तौ लौल्यदोषेण, शून्यत्वं यत्तु चेतसः / ज्ञेयः स चित्तविक्षेपो, जीवस्यास्य मृगेक्षणे // 151 // तृप्तेरभावो भोगेषु यो भुक्तेषु सुबहुष्वपि / उत्तरोत्तर वाञ्छा च, तृष्णा गीता मनीषिभिः // 152 // पापाद्भोगेषु जातेषु, जातनष्टेषु वा पुनः / बाह्योपायेषु यो यत्नो, विपर्यासः स उच्यते // 153 // अनित्याशुचिदुःखेषु, गाढं भिन्नेषु जीवतः। विपरीता मतिस्तेषु, या साऽविद्या प्रकीर्तिता // 154 // एतेषामेव वस्तूनां सर्वेषां यः प्रवर्तक / एतैरेव च यो जन्यो, महामोहः स गीयते // 155 // तदेवं भिन्नरूपाणि, तानि सर्वाणि सुन्दरि ! / महानद्यादिवस्तूनि, चिन्तनीयानि यत्नतः // 156 // पाहागृहीतसङ्केता, चारु चारु निवेदितम् / सत्यं प्रज्ञाविशालाऽसि, नास्ति मे संशयोऽधुना // 157 // तत्तिष्ठ त्वं विशालाक्षि !, साम्प्रतं विगतश्रमः / निवेदयतु संसारिजीव एव ततः परम् // 158 // नरवाहनराजाय, यद्विचक्षणसरिणा / निवेदितं प्रकर्षाय, विमर्शेन च धीमता // 159 // ततः संसारिजीवेन, प्रोक्तं विमललोचने ! / निवेदयाम्यहं तत्ते, विमर्शेन यदीरितम् // 160 // ततःप्रोक्तं विमर्शन, भद्र ! ज्ञातो यदि त्वया / महानद्यादिभावार्थस्ततोऽन्यत्किं निवेद्यताम् ? // 161 // प्रकर्षः प्राह मे माम ! नामतो गुणतोऽधुना / महामोहनरेन्द्रस्य, परिवारं निवेदय // 162 // या चेयं दृश्यते स्थूला, राजविष्टरसंस्थिता / एषा किंनामिका ज्ञेया ? किंगुणा वा वराङ्गना // 163 // विमर्शः प्राह नन्वेषा, प्रसिद्धा गुणगहरा / भो! महामूढता नाम, भार्याऽस्य पृथिवीपतेः // 164 // चन्द्रिकेव निशानाथे, स्वप्रभेव दिवाकरे / एषा देवी नरेन्द्रेऽस्मिन् , देहाभेदेन वर्तते // 165 // अत एव गुणा येऽस्य, वर्णिता भद्र ! भूपतेः / ज्ञेयास्त एव निःशेषास्त्वयाऽमुष्या विशेषतः॥१६६॥ प्रकर्षः प्राह यद्येवं, ततोऽतिनिकटे स्थितः / महाराजाधिराजस्य, कृष्णवर्णः सुभीषणः // 167 // निरीक्षमाणो निःशेष, राजकं वक्रचक्षुषा / य एष दृश्यते सोऽयं, कतमो माम ! भूपतिः ? // 168 // विमर्शः प्राह विख्यातो, राज्यसर्वस्वनायकः / मिथ्यादर्शननामाय, महामोहमहत्तमः // 169 //