________________ पूज्य आ० श्री यशोदेवसरि के दो शब्द एक दिन जैन समाज तथा विद्वत् जगत में प्रख्यात महोपाध्याय श्री विनयसागरजी का मेरे उपर पत्र आया कि "प्राकृत भारती अकादमी पं0 भगवानदासजी द्वारा प्रकाशित “दर्शन चौवीसी" पुनः प्रकाशित करना चाहती है। इस चौवीसी के मूल चित्र आपके पास है अतः इन चित्रों की ट्रान्सपरेन्सी करवा कर भिजवा दें तो एक सुन्दर कलात्मक कृति प्रकाश में आ जाय।" इसके लिए “मरीज की इच्छानुसार वैद्य ने पथ्य बतलाया" ऐसा ही बना, क्योंकि मैंने स्वयं ही आज से दस वर्ष पूर्व “दर्शन चौवीसी" छपवाने का निर्णय लिया था, मुद्रण व्यय का लेखाजोखा भी प्राप्त किया था। मेरी अभिलाषा थी कि यह चौवीसी जिस रूप में प्रकाशित हुई है उस रूप में नहीं किन्तु प्रत्येक पृष्ठ पर कुछ नवीनता एवं आकर्षक हो, ऐसा कुछ संभव हो तो नवीन स्वरूप प्रदान कर इसको छपवाया जाये। उस समय प्रकाशन के एवं कला आदि से संबंधित मेरे कितने ही कार्य चल रहे थे, समयाभाव के कारण यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी। यह तो मेरा दृढ़ निश्चय था कि अनुकूलता होने पर इसको अवश्य ही प्रकाशित करना है, तभी एक सद्ध व्यक्ति द्वारा मेरी भावना साकार हो ऐसे सुसमाचार मिले तब किसको आनन्द नहीं होगा? इसमें एक कारण यह भी था कि भगवानदासजी के जो चित्र हैं, उसे कलाकार जयपुर कला की दृष्टि से उच्च कोटि के गिनते हैं। पचपन वर्ष पूर्व जयपुर में बद्रीनारायण नाम के श्रेष्ठ कलाकार थे, जो जयपुर महाराजा के महल में स्थायी रूप से काम करते थे। ऐसे श्रेष्ठ कलाकार ने स्वयं के लिए आर्थिक दृष्टि से उपकारी पं0 भगवानदासजी को श्रेष्ठ कलाकृति भेंट स्वरूप देनी थी। यही कारण है कि प्रेम और धैर्य से एक भव्य चौवीसी कई वर्षों में तैयार हो सकी।