________________ के बिलों का भुगतान करना है। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि जोधपुर स्टेट इन चित्रों को खरीदना चाहता है। आज प्रातःकाल ही में पूज्य नेमिसूरिजी महाराज के पास गया था, वे भी इन चित्रों को लेना चाहते हैं।" यह सुनकर मैंने कहा-"किसी राजा को अथवा सरकार को बेचेंगे तो कला की दृष्टि से ये चित्र अवश्य ही प्रसिद्धि को प्राप्त होंगे, किंतु यदि आप इन चित्रों को जैन धार्मिक स्थानों में प्रदान करेंगे तो कला के साथ भक्ति की दृष्टि से भी ये पूजित होंगे। जो आप दोनों ही दृष्टियों से इन चित्रों का गौरव चाहते हों तो सूझ-बूझ के साथ निर्णय करियेगा।" जब वे जाने लगे तब फिर मैंने उन्हें भलामण देते हुए कहा कि "आप इस संबंध में जो भी निर्णय लें तो सर्वप्रथम मुझे अवगत अवश्य करा दें।" उन्होंने उसी समय मुझे वचन दिया कि बेचने के पूर्व आपको अवश्य ही परिस्थिति की जानकारी दे दूंगा। तदनन्तर कुछ महीनों के बाद भगवानदासजी का मेरे पास पत्र आया कि "इन चित्रों को अन्य स्थान पर बेचने की बात मैने बंद कर दी है। आपका विचार मुझे पसंद आया है। आप कलाप्रिय हैं और आपके यहां दोनों दृष्टियों से चित्रों का गौरव बढ़ेगा। अतः इन चित्रों को मैं आपकी संस्था को देना चाहता हूँ।" पत्र के उत्तर में मम उनको लिखा कि "आप चित्र लेकर पालीताणा आ जावें।" पंडितजी पालीताणा आये। पूज्य गुरुदेवों ने इन चित्रों को देखा और खरीदने की सहमति प्रदान की, अतः अत्यधिक उल्लास और उत्साह से जैन साहित्य मंदिर की संस्था में रखने के लिए ये चित्र खरीद लिए गये। संयोग से उस समय दानवीर श्रेष्ठिवर्य श्री माणेकलाल चुन्नीलाल यात्रार्थ पालीताणा आये हुए थे। वे पूज्य गुरुदेवों को वंदन करने के लिए आये, उस समय सारे चित्र वहीं रखे हुए थे। मैंने वे चित्र उन्हें बतलाये। वे चित्रों की कला देखकर बहुत प्रसन्न हुए,और इन चित्रों के संबंध में जानकारी चाही। मैंने कहा कि ये चित्र कल ही आये हैं और उन्हें खरीद लेना है तथा इसका लाभ आप लें, ऐसी हमारी भावना है। पूज्य गुरुदेवों ने भी माणेकभाई को प्रोत्साहित किया। वे उदार दिल के थे। उनकी ओर से ये चौबीस चित्र