________________ जयपुरी-चित्रों की प्राप्ति कथा -आचार्य यशोदेवसूरि जयपुर निवासी अत्यन्त धर्मश्रद्धालु, सरल स्वभावी सुश्रावक श्रीमान पं0 भगवानदासजी एक विद्वान् व्यक्ति थे। उन्होंने मूर्ति-शिल्प, उत्तम. कोटि का शिल्प स्थापत्य और ज्योतिष ग्रंथों के प्रकाशन द्वारा तथा जैनाचार्यों आदि के लिए सरिमंत्र वर्धमानविद्या आदि के कई पट चित्रित करवाकर एवं स्वयं की देखरेख में जयपुरी शिल्पियों द्वारा सैकड़ों मूर्तियां बनवाकर जैन शासन तथा जैनाचार्यों की बहुत सेवा की थी। __ आज से 50 वर्ष पूर्व मुझ से मिलने के लिए वे साहित्य मंदिर, पालीताणा में आये। उस समय मैं अपने तीनों ही बड़े गुरुदेवों के साथ में था। शिल्प, स्थापत्य, कला के प्रति मुझे छोटी अवस्था से ही अधिक आकर्षण था। कला के संबंध में कोई भी बात चलती तो मेरे गुरुदेव यह समझकर कि यह प्रसंग यशोविजयजी से संबंधित है वे उस व्यक्ति के साथ मेरा संबंध करा देते थे। पं0 भगवानदासजी स्वप्रकाशित "अनानुपूर्वी दर्शन चौवीसी" की पुस्तिका लेकर मेरे पास आये थे. यह पुस्तिका उन्होंने मुझे भेंट प्रदान की। दर्शन चौवीसी में चौबीस तीर्थकरों के जयपुरी कला में श्रेष्ठ कोटि के चित्र मुझे पहली बार देखने का अवसर मिला। इन चित्रों को देखकर मैं भावविभोर हो गया। कुछ समय पश्चातू उन्हें धन्यवाद दिया और धीमे से मधुरता के साथ मैंने उनसे कहा-"चित्रों एवं लेखन का मुद्रण बहुत सुंदर नहीं हुआ है, इतना बढ़िया काम. फिर भी आपने प्रिंटिंग में न्यूनता कैसे रखी?" उन्होंने कहा-"मैं दूसरों के विश्वास पर रहा और छोटे से प्रेस में काम करवाया, इसीलिए ऐसा हुआ।" तत्पश्चात उन्होंने यह भी कहा कि "इस चौवीसी के जयपुरी मूल चित्र मुझे बेचने हैं, इन चित्रों की मुझे अब आवश्यकता नहीं रही, काम पूरा हो गया और मुझे प्रेस