________________ सेनापतिने भ० बसे पुछा कि आपको कुछ लोग अक्रियावादी कहते हैं तो क्या यह ठीक है ? इसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा उसीमें उनकी समन्वयशीलता और अनेकान्तवादिता स्पष्ट होती है। उत्तरमें उन्होंने कहा कि सच है, मैं अकुशल संस्कारकी अक्रियाका उपदेश देता हूं इसलिए मैं अक्रियावादी हूँ और कुशलसंस्कारको क्रिया मुझे पसन्द है और में उसका उपदेश देता हूं, इसीलिए मै बियावादी भी ई / " इसी समन्वश्व-प्रकृतिका प्रदर्शन अन्यत्र दार्शनिक क्षेत्र में भी यदि भ० बद्ध ने किया होता तो उनको प्रतिभा और माने दार्शनिकों के सामने एक नया मार्ग उपस्थित किमा होता। किन्तु मह कार्य में महाबोर की शान्स और स्थिर प्रकृति से ही होने वाला था इसलिए भ० बुद्धने आर्य चतुःसत्यके उपदेशने ही कृतकृत्यत्रा का अनुभव किया तब भगवान महावीरले जो बुद्धले न हो सका उस करके दिखाया और वे अनेकान्त वामके प्रशासक हुए / _अब तक मुख्यरूपले भगवान बद्धके अव्याकृत प्रश्नोंको लेकर जैनागमाश्रित अनेकान्तवादको चर्चा की गई है। आगे अन्य प्रश्नों के सम्बस्व अनेकान्तवादके विस्तारको चर्चा करना इष्ट है परन्तु इस वसईके प्रारम्भ करनेके पहले पूर्वोक्त* "कर्म स्वयं कृत है या नहीं " इत्यादि प्रश्नका समाधान भ० महायो रने क्या किया है उसे देख लेना उचित है।भ बुद्धने तो अपनी प्रकृति के अनुसार उन सभी प्रश्नोंका उत्तर गिधधात्मक दिया है क्योंकि ऐसा न कहते तो उनको उच्छेदबाद और शाश्वतवादकी आपत्तिका भय था।किन्तु भगवान का मार्ग तो शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के समन्वयका मार्ग है अतएव उन प्रश्नों का समाधान विधिरूपले करने में उनको कोई भय नहीं था। उनसे प्रश्न किया गया कि दया कर्मका कर्ता स्वयं है, अन्य है या उभय है? इसके उत्तरले भगवान महावीरने कहा कि कर्मका कर्ता आत्मा स्वयं है, पर नहीं है और न स्वपरोभय / जिसने कभं किया है वही उसका भोक्ता है ऐसा माननेमें ऐकान्तिक शाश्वतवादकी आपत्ति भ० महावीरके मतमें नहीं आती क्यों कि जिस अवस्थामें किया था उससे दूसरी ही अवस्था में कर्मका फल भोगा जाता है तथा भोक्तृत्व अवस्थासे कर्मकर्तृत्व अवस्थाका भेद होने पर भी ऐकान्तिक उच्छेदवादको आपत्ति इस लिये नहीं आती कि भेद होते हुए भी जीव-द्रव्य दोनों अवस्थामें एक ही मौजूद है। * देखिए पष्ठ 24 1. विनय पिटक महावग्ग VI.31 2. अंगुत्तर निकाय Part IV P. 170 3. भगवती 1. 6. 53.