SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कालसे अनन्त और भावसे अनन्त है। इस प्रकार जीव सान्त भी है और अनन्त भी। ऐसा भगवान् महावीरका मन्तव्य है / इसमें कालकी दृष्टिसे और पर्यायों की अपेक्षासे उसका कोई अन्त नहीं। किन्तु वह द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षासे सान्त है ऐसा कह करके भगवान् महावीरने आत्माके "अणोरणीयान् महतो महीयान्" इस उपनिषद् मतका निराकरण किया है। क्षेत्रकी दृष्टिसे "आत्माकी व्यापकता" यह भगवानका मन्तव्य नहीं। और एक आत्म-द्रव्य ही सब कुछ है, यह भी भगवान् महावीरको मान्य नहीं किन्तु आत्म-द्रव्य स्वपर्याप्त है और उसका क्षेत्र भी मर्यादित है, इस बातको स्वीकार करके उन्होंने उसे सान्त कहते हुए भी कालको दृष्टि से अनन्त भी कहा है / एक दूसरी दृष्टिसे भी उन्होंने उसे अनन्त कहा है- जीवके ज्ञान-पर्यायोंका कोई अन्त नहीं, उसके दर्शन और चारित्र पर्यायोंका भी कोई अन्त नहीं, क्यों कि प्रत्येक क्षणमें इन पर्यायोंका नया-नया आविर्भाव होता रहता है और पूर्व पर्याय नष्ट होते रहते हैं / इस भाव-पर्याय दृष्टि से भी जीव अनन्त है। बुद्ध का अनेकान्तवाद इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् बुद्ध के सभी अव्याकृत प्रश्नोंका व्याकरण भ० महावीरने स्पष्टरूपसे विधिमार्गका स्वीकार करके किया है और अने. कान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। इसका मूल आधार यही है कि एक ही व्यक्तिमें अपेक्षाके भेदसे अनेक संभावित विरोधी धर्मोंकी घटना करना। मनुष्य-स्वभाव समन्वयशील तो है ही किन्तु सर्वदा कई कारणों से उस स्वभावका आविर्भाव ठीक रूपसे हो नहीं पाता, इसी लिए समन्वयके स्थानमें दार्शनिकोंमें विवाद देखा जाता है और जहाँ दूसरोंको स्पष्ट रूपसे समन्वयकी संभावना दीखती है वह भी अपने पूर्वग्रहोंके कारण दार्शनिकोंको विरोधकी गंध आती है / भगवान् बुद्ध को उक्त प्रश्नोंका उत्तर अव्याकृत देना पड़ा। इसका कारण यह है कि उनको आध्यात्मिक उन्नति में इन जटिल प्रश्नोंकी चर्चा निरर्थक प्रतीत हुई अतएव इन प्रश्नोंको सुलझानेका उन्होंने कोई व्यवस्थित प्रयत्न नहीं किया किन्तु इसका मतलब यह कभी नहीं कि उनके स्वभावमें समन्वयका तत्त्व बिलकुल नहीं था। उनकी समन्वयशीलता सिंह सेनापतिके साथ हुए संवादसे स्पष्ट है। भगवान् बुद्धको अनात्मवादी होनेके कारण कुछ लोग अक्रियावादी कहते थे, अतएव सिंह
SR No.004351
Book TitleAgam Yug ka Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Cultural Research Society
Publication Year
Total Pages36
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy