SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 13 ) [2] भगवान महावीर की देन-अनेकान्तवाद प्राचीन तत्त्व-व्यवस्थामें भगवान महावीरने क्या नया अर्पण किया इसे जानने के लिये आगमोंसे बढ़कर हमारे पास कोई साधन नहीं है। जीव और अजीव के भेदोपभेदोंके विषयमें, मोक्षलक्षी आध्यात्मिक उत्क्रान्ति क्रमके सोपानरूप गुणस्थानके विषयमें, चार प्रकारके ध्यानके विषयमें या कर्मशास्त्रके सूक्ष्म भेदोपभेवों के विषयमें या लोकरचनाके विषय, या परमाणुओंकी विभिन्न वर्गणाओंके विषय में भगवान् महावीरने कोई नया मार्ग दिखाया हो, यह तो आगमोंको देखनेसे प्रतीत नहीं होता। किन्तु तत्कालीन दार्शनिक क्षेत्रमतत्त्वके स्वरूपके विषय में जो नये-नये प्रश्न उठते रहते थे उनका जोस्पष्टीकरण भगवान् महावीरने तत्कालीन अन्य दार्शनिकोंके विचारके प्रकाश किया है वही उनकी दार्शनिक क्षेत्रमें देन समझना चाहिये। जीवका जन्म-मरण होता है यह बात नई नहीं थी, परमाणुके नानाकार्य बाह्य जगत्में होते हैं ओर नष्ट होते हैं यह भी स्वीकृत था किन्तु जीव और परमाणुका कैसा स्वरूप माना जाय जिससे उन भिन्न-भिन्न अवस्थाओंके घटित होते रहने पर भी जीव और परमाणुका उन अवस्थाओंके साथ सम्बन्ध बना रहे / यह और ऐसे प्रश्न तत्कालीन दार्शनिकोंके द्वारा उठाये गये थे और उन्होंने अपना-अपना स्पष्टीकरण भी किया था। इन नये प्रश्नोंका भगवान् महावीरने जो स्पष्टीकरण किया वही उनकी दार्शनिक क्षेत्रमें नई देन है। अतएव आगमोंके आधार पर भगवान् महावीर की उस देन पर विचार किया माय तो बादके जैन दार्शनिक विकासको मूल भित्ति क्या थी यह सरलतासे स्पष्ट हो सकेगा। ईसाके बाद होने वाले जैनदार्शनिकोंने जैन तत्त्वविचारको अनेकान्तवादके नामसे प्रतिपादित किया है और भगवान् महावीरको उस वादका उपदेशक बताया है। उन आचार्योंका उक्त कथन कहाँ तक ठीक है और प्राचीन आगममें अनेकान्तवादके विषयमें क्या कहा गया है उसका दिग्दर्शन कराया जाय तो सहज ही में मालूम हो जायगा कि भगवान् महावीरने समकालीन रार्शनिकोंने अपनी विचार-पारा किस ओर बहाई और बादमें होनेवाले जैन भाचार्योने उस विचार-धाराको लेकर उसमें क्रमशः कैसा विकास किया? (अ) चित्रविचित्रपक्षयुक्त पुंस्कोकिलका स्वप्न- 2 भगवान् महावीर को केवलज्ञान होनेके पहले जिन दश महास्वप्नोंका दर्शन 1. लघीयस्त्रय का० 50 / 2. भगवती शतक 16. उद्देशक 6
SR No.004351
Book TitleAgam Yug ka Anekantwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherJain Cultural Research Society
Publication Year
Total Pages36
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy