________________ ( 11 ) किन्तु यहाँ एक प्रश्न होता है कि मरणानन्तर तथागत बुद्धका क्या होता है ? इस प्रश्नका उत्तर भी अध्याकृत है वह इसलिये कि यदि यह कहा जाय कि मरणोत्तर तथागत होता है तो शाश्वतवादका और यदि कहा जाय कि नहीं होता तो उच्छेदवादका प्रसंग आता है / अतएव इन दोनों वादों का निषेध करनेके लिये भगवान् बुद्धने तथागतको मरणोत्तर दशामें अव्याकृत कहा है। जैसे गंगाके बालूका नाप नहीं, जैसे समुद्र के पानीका नाप नहीं इसीप्रकार मरणोत्तर तथागत भी गंभीर है, अप्रमेय है अतएव अव्याकृत है / जिस रूप, वेदना, संज्ञा आदिके कारण तथागतकी प्रज्ञापना होती थी वह रूपादि तो प्रहीण हो गये / अब तथागतकी प्रज्ञापनाका कोई साधन नहीं बचता इसलिये वे अव्याकृत हैं। इस प्रकार जैसे उपनिषदोंमें आत्मवादको वा ब्रह्मवादकी परकाष्ठाके समय आत्मा या ब्रह्मको 'नेति-नेति'के द्वारा अवक्तव्य प्रतिपादित किया गया है, उसे सभी विशेषणोंसे पर बताया गया है। ठीक उसी प्रकार तथागत बुद्धने भी आत्माके विषयमें उपनिषदोंसे बिल्कुल उलटा राह लेकर भी उसे अव्याकृत माना है / जैसे उपनिषदोंमें परम तत्त्वको अवक्तव्य मानते हुए भी अनेक प्रकारसे आत्माका वर्णन हुआ है और वह व्यावहारिक माना गया है और उसी प्रकार भगवान् बुद्धने भी कहा है कि लोकसंज्ञा, लोकनिरुक्ति, लोकव्यवहार, लोकप्रज्ञप्तिका आश्रय करके कहा जा सकता है कि "मैं पहले था, 'नहीं था' ऐसा नहीं; मैं भविष्यमें होऊँगा, 'नहीं होऊँगा' ऐसा नहीं; मै अब हूँ, 'नहीं हूँ' ऐसा नहीं।" तथागत ऐसी भाषाका व्यवहार करते हैं किन्तु इसमें फंसते नहीं। (इ) प्राचीन जैनतत्त्वविचार * इतनी वैदिक और बौद्ध दार्शनिक पूर्व भूमिकाके आधार पर जैन दर्शनकी आगमवणित भूमिकाके विषयमें विचार किया जाय तो उचित ही होगा। जैन 1. संयुत्तनिकाय XLIV. 2. "अदृष्टमव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणमचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिव मद्वैतं चतुर्थ मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः / " माण्डु 6. 7 / “स एष नेति नेति इत्यात्माऽग्राह्यो न हि गृह्यते / " . बृहदा० 4. 5. 15 ! इत्यादि / रानडे, Op. Cit., P. 219. 3. दीघनिकाय पोट्टपाद सुत्त 9 /