________________ 4 . - पंचाष्टश सर्वेभ्यो वर्जेभ्यो विरतिगृहात। ---- उपासको पवासस्थ श्रमणो द्देशभिभुता // 15 // शीलं सुचरितं कर्म संवरचोच्यते पुनः आये विज्ञप्त्य वितप्ती प्रातिमा क्रियापथः // 4 // प्रतिमााचि ता चारौ ध्यानजेन तदन्चितः) अनात्रवेणार्यसत्वा अन्त्यो चित्तानुवर्तिनौ // 7 // अना गम्ये प्रहाणाख्यौ तावानन्तर्यमार्गौ। संपतान स्मृती द्वे तु मन इन्द्रिय संवरो त LVPT: मात्या पातिमोअस्थितो नित्यमत्यागाहर्तमानया माया अवितप्त्यान्चितः पूर्वाक्षणादूर्द्धमतीतया // 19 // तथैवासंवरस्थोऽपि ध्यानसंवरवान् सदा अतीताजातयाsर्य स्तू प्रथमे माभ्यतीतया॥२०॥ समाहितार्यमार्गस्थौ तौ युक्तौ वर्तमानया। मध्यस्य स्यास्ति चदादौ मध्ययो वैदिकालया // 24 // असंवरस्थः शुभया ऽ शुभया संवरे स्थितः। / - अविज्ञप्यान्चि तो यावत् प्रसाद केशवेगवान् // 22 // मध्य या तु युताः सर्वे कुवन्नामव्ययान्विताः। अतीतया क्षणादूद्धमात्यागान्नास्त्यजा तया // 23 // MA: