________________ I LUPET तत्र भाजनलोकस्य संनिवेशभूशान्त्यधिः / लअषोडशाको द्वेधमसंव्यं वायुमण्डलम् / / 4 / / अपामकादशो वेध सह साणि च विंशतिः। अष्टलओच्छूयं पश्चा-छेषं भवति काञ्चनम् // 16 // तिर्यक् त्रीणि सहस्राणि [ साई शात चतुष्टयम् / लक्षद्वादशकं चैव जलकाञ्चन मण्डलम् // 4 // समन्ततस्तु त्रिगुणं तत्र मेरुगन्धरः / इंघाधार खदिरक: सूदर्शन गिरिस्तथा / / 48) अश्चकर्णो विनतको निमिर्मान्धर गिरिस्ततः) दीपा बहिन्चक्रवार: सप्त हैमा: स आयस:॥४९॥ चतुरनमयो मेफ़र्जले ऽशीतिसहसके / मग्न उर्व जलान्मेरुभूयोऽशीतिसहसकिः] // 5 // अर्धार्धहानिरष्शसु समोच्छ्यवनाच ते। शीता: सप्तान्तराण्येषामायाशीति स हसिका // 51 // आभ्यन्तरः समुद्रोऽसौ त्रिगुण: सत् पार्श्वतः। अर्धाधेनापति राJ: सीता: शेनं बायो महोदधिः॥५३॥ लसत्रयं सहस्राणि विशतिट्वे च तत्र तु। जम्बूद्दीपो द्विसाहस्राबिपाशाकराकृतिः // 3 // LVPG