________________ शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती 0000000000000000 ..0000000000000 महीशानपुरे श्रीदः श्रेष्ठी श्रीदोपमः श्रिया / पुत्रोऽभून्मदनस्तस्य पत्नी प्रीतिमतिः सती / / 8 / / कामाभिलाषकोऽत्यन्तं मदनो गेहिनीयुतः / क्षणमेकं विना पत्न्या स्थातु शक्नोति साऽपि न // 6 // मदनो जनकं पृष्ट्वा सार्थवाहाभिधानभृत् / भूरिक्रयाणकैः पृष्ठ-बाहानभृत भूरिशः // 10 // सुदिने मदनो लक्ष्मी-कृतेऽन्यविषयं प्रति / यियासुः भामिनी प्राह त्वमत्रास्थाः सुखं प्रिये ! // 11 // पत्न्यवग् न विनाऽत्र त्वां क्षणं स्थातु प्रभुः प्रभो ! / मदनः प्राह न स्थातु त्वां विनेह प्रियोतमे ! // 12 // साम्प्रतं दुष्करं दूर-गमनं विद्यते प्रिये ! / तेन त्वमत्र तिष्ठाद्य रमाहेतो जाम्यहम् // 13 // स्थापितापि बलात् पत्या पत्न्यचालीत् समं तदा / मदनो नगराद् बाह्योद्याने वासमुपागमत् / / 14 // तत्र तुङ्गपटीं कृत्वा मदनो गहिनीसखः / तस्थौ रात्रौ तदाऽभाणी-देवं सहचरी प्रति // 15 // यदि पत्या समं पत्नी विदेशं व्रजति स्वयम् / प्रतिबन्धात् तदा पत्न्याः पतिः स्याद् दुःशको दृढम् // 16 // अतिष्ठन्तीं प्रियां सुप्तां मुक्त्वा तत्र तथास्थिताम् / अचलन्मदनश्छन्न जजागार प्रिया प्रगे // 17 // चलितं रमणं मुक्त्वा गतं ज्ञात्वा प्रिया तदा / रोदं रोदं भृशं स्थित्वा तत्र दध्याविदं हृदि // 18 // अहं मुधा समं पत्या चलन्त्यस्मि जडाशया / सद्वस्त्राभरणा नारी विना कान्तं न शोभते // 16 // यतः भत्तारविरहिआणं होइ पिया आलो महिलीपाणं / अह पुण पुराणेहिं विणा सो पुण वइरी समो जानो // तावच्चिा हिययइट्ठा माऊणं पिऊण बंधवाणं च / जाव न धाडेइ पई महिलं नीपात्रो गेहाश्रो // 21 // ताव सिरी सोहग्गा ताव य गुरुग्राउ होंति महिलायो / जाव य पई महग्धं सिणेहपक्खं समुव्वहइ // 22 // माया पिईया भाया वच्छल्लं तारिसं करेऊणं / अवराहविरहिआए कमहुञ्जपणासियं मव् // 23 // ध्यात्वेत्याभरणादीनि बद्ध्वा पोट्टलके स्वयम् / श्वेताम्बरधरा स्वौकः समागान्मदनप्रिया // 24 // पपात पादयोः श्वश्वाः स्नुषा यावत्सुभक्तितः / तावत् श्वजगौ किन्तु सूनोमङ्गलमस्ति मे // 25 // स्नुषाऽवक् कुशली पुत्र-स्तव मां पदबन्धकम् / मत्वा मुक्त्वा रहोऽवालीत् दूरदेशं प्रति ध्रुवम् // 26 // सद्वस्त्राभरणा गेहे यदि पत्या विना कृता / स्थास्याम्यहं तदा मे न सन्मार्गे तिष्ठते मनः // 27 // एवं ध्यात्वा मयोत्तार्य भूषणादि शरीरतः / एवं विधा समायाता भवत्या श्वश्रु संन्निधौ // 28 // सबलाहारताम्बूला-दिकं रागविधायकम् / शीलरक्षाकृते प्रीति-मती समत्यजत् तदा // 26 // पत्यो समागते प्रीति-मती सद्वसनादिभृत् / पत्युर्यथोचितं चक्रं विनयं जल्पनादिभिः // 30 / / मातापित्रोगिरा पत्नी-विहितं सत्यु(सू )चितं च तत् / मत्वा सन्मानयामास प्रियां भूषण दानतः // 31 // पितुरग्रे बहुलक्ष्मी ढौकयित्वा नतिं व्यधात् / ततो मातुः पदौ भक्त्या ननाम मदनः सुतः // 32 // क्रमाद् गुर्वन्तिके श्रुत्वा चारित्रस्य फलं शिवम् / सप्रियो मदनो दीक्षां जग्राह निवृतिप्रदाम् // 33 / / शुद्ध चारित्रमाराध्य मदनः संयतः क्रमात् / शत्रुञ्जये तपस्तप्त्वा श्रेयःपुर्यां समीयिवान् // 34 // : प्रीतिमत्यपि चारित्रमाराध्य शुद्धमादरात् / प्रथमे ताविषे जातोऽमरो भासुरविग्रहः // 3 // इत्याधरजिनाधीश-वचः श्रुत्वा जनो बहुः / तत्र तीर्थे ययौ मुक्तिं सर्वकर्मक्षयात् क्रमात् / / 36 // तीर्थे तत्र दिनान भूरीन् स्थित्वा श्रीअरतीर्थकृत् / भव्यान बोधयितु चक्रे विहारमन्यनिवृति // 37 // ॐ इति अरजिनस्य शत्रुञ्जयागमनसम्बन्धः * //