________________ श्रेयांसजिनस्य शत्रुञ्जयसमागमनस्वरूपम् 10000000000000000000 एव बहूपदेशेषु, दत्तषु प्रियया तदा। कालः स्तोकं धनं नैव, विततार वृषे क्वचित् // 13 // कालेऽन्यदा प्रसुप्तस्य, स्वप्ने श्रीदेवतेत्यवग् / यास्याम्यहं त्वदावासात्, पुण्यं क्षीणं यतस्तव // 14 // इह त्वया न दानादि-धमः स्तोकोऽपि निम मे / यस्य पुण्यं भवेत्तस्य गृहे तिष्ठाम्यहं सदा // 15 // यतः-'गुरवो यत्र पूज्यन्ते वित्त यत्र नयार्जितम् / अदन्तकलहो यत्र तत्र शक ! वसाम्यहम् // 16 // 'द्यूतपोषी निजद्वेषी धातुवादी सदाऽलसः / प्रायव्ययम(स्या)नालोची तत्र तिष्ठाम्यहं नहि // 17 // प्रातः पत्न्याः पुरः प्रोक्ते नैशे वृत्ते श्रियोदिते / प्रिया प्राह मयाऽप्युक्तं व्यय धर्म धनं प्रिय! // 18 // अधुना व्ययते लक्ष्मी दानधर्मे पते ! यदि / तदा स्थिरा भवेल्लक्ष्मीः पुण्यबद्धा यतो रमा // 16 // व्ययित्वा निखिलां लक्ष्मी क्षेत्रेषु सप्तसु क्रमात् / रात्रौ स्मृतनमस्कारः सुष्वाप सुखनिद्रया // 20 // यतः-जे कुच्छिएसु दाणं दिति सुहभोगकारणनिमित्तं / ते कुज़राइ जाया भुजंति हि दाणजं सोक्खं // 21 // जह खेत्तम्मि सुकिट्ठवड्ढइ (धन्न) न तस्स परिहाणी / एवं सुसाहुदाणे विउलं पुएण्णं समजिणइ // 22 // एक्कम्मि जह तलाए गो-सप्पेणं च पाणियं पीयं / सप्पे परिणमइ विसं घेणुसु खीरं समुन्भवइ // 23 // तह निस्सीलसुसीला-दीणं दाणं फलं अफलयं च / होही परम्मि लोए पत्तविसेसेण से पुन // 24 // . कालेन व्ययितां लक्ष्मी सर्वां ज्ञात्वा रमासुरी / तत्पुण्यगुणबद्धाऽवक् श्रिया त्वत्सदनं भृतम् // 25 // एवं तेन धने घस्र तस्मि श्च व्ययिते सति / द्वितीयेऽह्नि प्रगे पूर्ण श्रियाऽपश्यत् स्वमन्दिरम् // 26 // एवं विंशतिघस्रान्ते कालोऽभ्येत्यान्तिके गुरोः / परिग्रहप्रमाणं तु ललावेव प्रमोदतः // 27 // टङ्कानां चतुःपञ्च सहस्राणि दशालयाः / महिष्योऽष्टौ प्रिया चैका गावो दश वृषा दश // 28|| घोटका विंशतिहेम-रूप्ययोः पलसप्ततिम् / इत्याद्यभिग्रहं लात्वा कालः सुख्यभवत्तदा // 26 // तदाऽस्मान् मृते भूपे निष्पुत्रे मन्त्रिपुङ्गवः। राज्यं दत्तं बलात्तस्मै कालाय लसदुत्सवम् / / 30 // कालो राज्ये युगादीश-बिम्बं निवेश्य तत्क्षणात् / स्वयं तु सेवकीभूतः सेवते स्म प्रभुक्रमौ // 31 // परिग्रहप्रमाणं तु पालयन् कालभूपतिः / जिनभूपधनेनैव व्यधाद् भूरि जिनालयान् / / 32 / / कालः स्वतनयं भीम स्थापयित्वा निजे पदे / सहस्राष्टवणिगवाहु-जातैः सह व्रतं ललौ // 33 // पठित्वा जिनसिद्धान्तं प्राप्य सूरिपदं क्रमात् / भविनो बोधयामास लक्षशो जिनम्मिणि // 34 // अयुतप्रमितैर्वाचं-यमैयुक्तः स सूरिराट् / बोधयन् भविनः शत्रु-जये शैले समीयिवान् // 35 // तत्र कर्मक्षयं कृत्वा केवलज्ञानमाप्य च / कालः सूरिययौ मुक्तिं भूग्विाचंयमान्वितः // 36 / / एव धर्मोपदेशेन प्रबोध्य भविनो बहून् / श्रीशीतलो जिनोऽन्यत्र विजहार ततोऽद्रितः / / 37 // X. इति श्री शीतलजिनस्य शत्रुञ्जयसमागमनस्वरूपम X // अथ श्रेयांसजिनस्य शत्रुञ्जयसमागमनस्वरूपम् / / सिंहाभिधे पुरे विष्णु-भूपतेः शासतो महीम् / विष्णुदेवी प्रिया विष्णो-लक्ष्मीरिवाभवद्वरा // 1 // चतु दश-महास्वप्न-सूचितो विष्णुभार्यया / फाल्गुनासितगौरीश तिथावसावि नन्दनः // 2 //