________________ शतावर्तनामोपरि सोमदेवमहीपतिकथा .00000000000000 0000000000000000000000000000 0000000000 हृष्टः शक्रस्तदा शेष-ज्ञानिनां रैमयान्यपि / चक्र सहस्रपत्राण्यु-पवेशाय पृथक पृथक् // 22 // प्रत्येकमखिलज्ञान-वतां पार्श्वे सुराधिपः / धर्मोपदेशमाकर्ण्य स्वान्तहृष्टोऽभवद् भृशम् // 23 // यदा तत्र महाशैले सहस्रपत्रसूरिराट् / मुक्तिपुर्यां ययौ शक्र-श्चक्र चारूत्सवं तदा // 24 // सहस्रपत्रगेहिन्यः समेत्य सिद्धपर्वते / संप्राप्याऽनुत्तरं ज्ञानं मुक्तिपुर्यां समागमन् // 25 // सहस्रपत्रसूरीशे मुक्तौ याते मरुत्पतिः / ददौ सहस्रपत्रेति नाम तीर्थस्य सूत्सवम् / / 26 / / ॐ इति सहस्रपत्रनामोपरि सहस्रपत्रकुमारकथा // अथ शतावर्तनामोपरि सोमदेवमहीपतिकथा / यात्रां शत्रुञ्जये कृत्वा सोमदेवो नरेश्वरः / शतावर्त्तति नामाऽदाचारूत्सवपुरस्सरम् // 1 // कुण्डकेलिपुरे सोम-देवो न्यायेन मेदिनीम् / पालयन् कुरुते धर्म-कर्माणि सततं मुदा // 2 // साधयन् विषयान् भूपः क्रमादक्षिणदिकतटे / अरिमर्दनभूपालं स्वाज्ञामग्राहयद् बलात् // 3 // सोमदेवे महीपाले पालयति क्षमा नयात् / प्रजा प्रमुदिता जाता सोमे सत्युडुपङ्क्तिवत् // 4 // यथा प्रह्लादनाचन्द्रः प्रतापात्तपनो यथा / तथा यथार्थनामाऽभूद् राजा प्रकृतिरञ्जनात् // 5 // भेदयित्वाऽन्यदा सर्व परिवारं धनार्पणात् / मदनोऽरिनृपः कुण्ड-केलिपुर्यां समागमत् // 6 // सोमदेवो नृपः पुर्या निर्मात्य बहिरञ्जसा / युद्धयन् सहाऽरिणा जज्ञे वलं विघटितं निजम् // 7 // दध्यौ सोमोऽधुना कत्तुं युद्ध मे नारिणोचितम् / यतो विघटितं सर्व बलं दुष्कर्मयोगतः // 8 // विमृश्येति तदा सर्व बलं विमुच्य वेगतः / पत्नीयुक्तो रहो रात्रौ निःससार पुराद् बहिः // 6 // मार्गे तस्य महीशस्य पुत्रोऽसावि सुतो वरः / तस्य नाम ददौ देव-कुमारेति पिता तदा // 10 // चन्द्रपुर्यन्तिके चन्द्राऽऽचार्योपान्ते स भूपतिः / धर्म श्रोतुमुपाविष्टः प्रणम्य गेहिनीयुतः // 11 // पूना जिणिंदेसु रुई वएसु, जत्तो असामाइअपोसहेसु / दाणं सुपचे सवणं च सुचे सुसाहुसेवा सिवलोअमग्गो // नाणं नियमग्गहणं नवकारो नयलई य निट्ठा य / पंच नयविभूसिवाणं न पयारो तस्स संसारे // 13 // के रोगा कानि कष्टानि कानि पापानि भूतले / पुरतः पुण्डरोकाद्र स्तमांसीव विवस्वतः // 14 // राजाऽप्राक्षीद् गतं राज्यं वलिष्यति कथं मम ? / गुरवो जगदुर्गच्छ तीर्थे शत्रुञ्जयाभिधे // 15 // तत्र श्रीशान्तिनायस्य पूजां कृत्वा वरैः सुमैः / षष्ट तपः सदा कार्य भवता मेदिनीपते ! // 16 // श्रुत्वैतन्नृपतिः शत्र-जये गत्वा निरन्तरम् / गुरूदितं तपः कुर्वन् ध्यायति प्रभुमन्वहम् // 17 // तत्र तुष्ट न गरुड-यक्षेण शान्तिसेविना / शतावत्त महाचक्रं दत्त्वा तस्मै च जल्पितम् // 18 // लात्वा करे शतावत्तं चक्र गच्छ निजे पुरे / यस्ते नाज्ञां तु मन्येत तस्य कृन्तति मस्तकम् / / 16 // लात्वा भूपः शतावर्त-मायान्तं तं महीपतिम् / श्रुत्वा वैरी मियाऽभ्येत्य सन्मुखं प्राणमन्मदा // 20 // जगौ वैरी गृहाण त्व-मिदं राज्यं तवाधुना / अहं ते किङ्करोऽस्म्येष कार्यमादिश्यतां मम // 21 / / सोमदेवो निजं राज्यं प्राप्य शस्त्र णानेन तु / अनेकशो रिपून् स्वाज्ञां ग्राहयामास वेगतः / / 22 / /