________________ 16 शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती .0000000000000000000000000000000000000000000 ..000000000000000 000000000000 पुण्डरीको जनान् भव्यान् बहून् प्रबोधयन् वृषे / पूर्वाण्यनेकेशो निन्ये जीवितव्यस्य सन्ततम् // 12 // वृषभान्तेऽन्यदायादीत् पुण्डरीको गणाधिपः / मम कुत्र शिवं भावि स्वामिन्नादिश्यतामिति // 13 // स्याम्याचष्ट सुराष्ट्रासु तुङ्गोऽस्ति धरणीधरः / तत्र ते गमनं मोक्षे भविष्यति न संशयः // 14 // श्रुत्वा प्रभोर्वचः सम्यग् भूरिसाधुसमन्वितः / पुण्डरीकोऽचलद् गन्तु तुङ्ग महीधरं प्रति // 15 // मुराष्ट्रासु स्थितं तुङ्ग पर्वतं भूविभूषणम् / दृष्ट्वा चक्र नतिं भक्त्या पुण्डरीको गणाधिपः // 16 // तुङ्गपर्वतमारूढः पुण्डरीको गणाधिपः / ध्यानमौनपरो जातो भूरिवाचंयमान्वितः // 17 // पालयन शुद्धचारित्रं वर्ष क्रियाकलापकृत् / पुण्डरीको ददौ धर्मो-पदेशं भविनां पुरः // 18 // धर्मोपदेशोऽत्र वाच्यः-तदानीं पञ्चकोटीभिर्वर्यसाधुभिरन्वितः। पुण्डरीको गणी ध्यान-लीनचित्तोऽभवत्तदा // मासक्षपणमुच्चर्य पुण्डरीकादयस्तदा / सर्वे वाचंयमाः शुक्लध्यानारूढा बभुभृशम् // 20 // चैत्रस्य पूर्णिमारात्रौ पुण्डरीको गणाधिपः / सम्प्राप केवलज्ञानं ततोऽन्ये साधवोऽश्रयन् // 21 // पुण्डरोके गते मुक्तो कृत्वा मोक्षमहोत्सवम् / देवास्तस्यैव तीर्थस्य पुण्डरीकाभिधां ददुः // 22 // यतः-“चित्तस्स पुण्णिमाए समणाणं पंचकोडीपरिवरिओ।निम्मलजसपुण्डरीअंसो विमलगिरी जयउ तित्थं" / / भरतस्तत्र कल्याण-मयं स्फारं जिनालयम् / कारयामास कल्याण-कोटिकोटिशतव्ययात् // 24 // तत्र रत्नमयं विम्ब श्रीयुगादिजिनेशितुः / स्थापयामास भरतः प्रतिष्ठोत्सवपूर्वकम् // 25 // द्वाविंशतिर्जिनावासान द्वाविंशत्यहतां पुनः / भरतः कारयामास भूरिस्वर्णव्ययात् पुनः // 26 // उक्तं च पुण्डरीकप्रकीर्णके"चित्तस्स पुण्णिमाए मासक्खमणेण केवलं नाणं / उप्पन्न सव्वेसिं पढमं वर पुंडरीअस्स // 1 // केवलिमहिम दटुपुडरीए सुरगणेहिं कीरंतं / उप्पन्ननाणरयणा केवलि जाया तो सव्वे // 2 // देवेहिं कया महिमा सिद्धि पत्ताण सव्यसाहूणं / पुडरीयकेवलिस्स वि सरीरपूया कया विहिणा // 3 // पूअं काऊणं तो देवा वच्चंति अप्पणो ठाणं / पुडरीअकेवलिस्स वि भरहेण कयं तु जिणभवणं // 4 // देवेहिं इमं घुट्ट जिणेण परिसागएण भविप्राणं / पुनो एस नगवरो नामेण य पुंडरीश्रोत्ति // 5 // " * इति पुण्डरीकनामोपरि श्रीवृषभजिन-प्रथमगणधरपुण्डरीककथा . // अथ सिद्धशेखरनामोपरि पद्मभूपकथा // यथा सिद्धान् जनान् भूरीन् दृष्ट्वा पद्ममहीपतिः / तीर्थस्याऽस्य ददौ सिद्ध-शेखरेत्युच्यते तथा // 1 // लक्ष्मीपुर्यामभूल्लक्ष-महीशो न्यायतः प्रजाः / पालयन् कुरुते जैन धर्म शिवसुखप्रदम् // 2 // तस्याऽऽसीत् प्रेयसी प्रीति-मती लावण्यशालिनी / पालयन्ती सदा शीलं सीतेव रामभूपतेः // 3 // पुत्रः पद्मकुमारोऽभूत् मन्त्री मुकुन्दनामकः / मन्त्रिमनुर्धरो नाम्ना सर्वशास्त्रविशारदः // 4 // यतः- "विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन / स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते // 5 //