________________ 186 शत्रुञ्जय-कल्पवृत्तौ .00000000000000 जइ मणवयण तरणं रामं मोत्तूण परणरो अन्नो / सुविणे विश्र अभिलसिओ तो डहउ मम इमो अग्गी / / 1326 / / सा एवं जंपिऊणं तो पविट्ठाऽणलं जणयधूया। जायं जलं विमलं सुद्धा दढसीलसंपुण्णा // 1327 // सीतां शुद्धां तदा वीक्ष्य सुरलोको जगुः स्फुटम् / सतीयं विद्यते सीता श्लाघनीयाद्य नाकिना // 1328 // वर्धापनं जनाः सर्वे गीतगानपुरस्सरम् / कुर्वते जनकक्षमाप-पुत्र्या गृहे गृहे मुदा // 1329 / / यतः-"विज्जाहरा य मणुया नच्चंता उल्लवंति परितुट्ठा। सिरिजणयरायधूया सुद्धा दित्ताणले सीया // 1 // " तदा लवाङ्क शौ पुत्रौ भूरिभूपखगान्वितौ / समेत्य जननीपादौ नेमतुमुदिताशयौ // 1330 // पुष्पविमानमारूढा सीता नारीशतान्विता / सर्वज्ञसदनेष्वेत्य नमामाऽमलमानसा // 1331 // ततो भूरितरं दानं ददाना जनकात्मजा / वीक्ष्यमाणा पुरीलोकै-राजगाम निजालयम् / / 1332 // ततोऽवग जानकी कान्त ! मा खेदं कुरु साम्प्रतम् / स्वकर्मणा कलङ्कतु प्राप्यं ते दृषणं न हि // 1333 // कलङ्कात्त प्रसादेनो-तीर्णाहं राघवाऽधुना / तत्कुर्वे कर्म येनाऽथ न स्यां नारी भवादतः // 1334 // यतः- "इंदधणु-फेण-बुब्बुयसमेसु भोएसु दुरभिगंधेसु / किं एएसु महाजस ! का रइ बहुदुक्खजणएसु // 1 // बहुजोणीसयसहस्सा परिहिंडंती अहं सुपरिसंता। इच्छामि दुक्खमोक्खं संपइ जिणदेसियं दिक्खं // 2 // ततो रामो बलात् सीतां प्रति प्रोवाच सादरम् / अधुना त्वं व्रतं लाहि यदा शोभा तदा नहि // 1335 / / अथावसर आयाते गृहीतव्यं त्वया व्रतम् / अहं चापि व्रतं लातु वाञ्छन्नस्मि तदा पुनः // 1336 // इतस्तस्य पुरोधाने ज्ञानी सकलभूषणः / समेत्य समवासार्कीद् भूरिसंयतसेवितः / / 1337 // ततो रामः ससोदर्यो विभीषणादिसेवितः / धर्म श्रोतु यतेः पार्श्वे ययौ ननाम चादरात् // 1338|| श्र त्वा धर्मोपदेशं तु विभीषणो जगाविदम् / रामेण किं कृतं पुण्यं लक्ष्मणेन च पूर्वतः // 1336 // येनेदृशी रमा जाता गजाश्वादिविभूषिता / लक्ष्मणेन च किं मृत्यु नीतो दशाननो रणे // 1340 // जानकी दण्डकारण्ये स्थितां मोहेन रावणः / सति सुन्दरशुद्धान्ते छलेन किमपाहर ? // 1341 // अथ ज्ञानी जगौ जम्बूद्वीपेऽत्र भरते वरे / पुरे क्षेमङ्करे श्रोष्ठी जयदत्ताभिधोऽभवत् // 1342 / / तस्यासीद् गेहिनी नाम्ना सुनन्दा शीलशालिनी / नन्दनो धनदत्तोऽभूद् वसुदत्तोऽपरः पुनः // 1343 // जन्यचक्राभिधो विप्रो मित्रं जातस्तयोः क्रमात् / त्रयस्ते सुहृदः शश्वत् क्रीड़ा वितन्यतेतराम् // 1344|| यतः–'कोऽहं कस्मिन् कथमायातः का मे जननी को मे तातः / इति परिभावयतः संसारः सर्वोऽयं स्वप्नव्यवहारः // 1345 / / हा हा दुष्ट ! कदर्थितकायैः क्षिप्त जन्म मुधा व्यवसायैः। __काकिण्यार्थे चिन्तारत्नं हारितमेतदकृत्वा यत्नम् // 1346 // प्रथमे वयसि यः शान्तः स शान्त इति मे मतिः / धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न जायते ? // 1347|| यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकित्ता / एकैकमप्यनर्थाय किं पुनस्तच्चतुष्टयम्' // 1348 // तस्मिन्नेव पुरे वर्ये वणिक सागरदत्तकः / अभूत्तस्याभवत्पत्नी रत्नाभाह्वा वराशया // 1346 / /