________________ जैनगीतासम्बन्धः 187 ....000000000000000000000000000000000000 तयोगुणधरः पुत्रोऽभूतां गुणमती सुता / नयदत्तस्य पुत्राय धनदत्ताय शालिने / / 1350 // ददौ सागरदत्ताथ पुत्रीं गुणमतों निजाम् / दातुमिमेल यावत् स सर्वसजनसाक्षिकम् / / 1351 // तत्रैव नगरे श्रेष्ठी श्रीकान्तो भूरिरैभरम् / रत्नाभायै वितीर्याऽथ रहो गुणमती ललौ // 1352 // श्रीकान्तेन हृतां छन्नं तदा गुणमती कनीम् / विज्ञाय जन्यचक्रोऽवग् वसुदत्तस्य सन्निधौ // 1353 // धनदत्तं गतं ग्रामे-ऽन्यत्र मत्वा तदा रुषा / वसुदत्तो निहन्तुच श्रीकान्तं निर्गतो निशि // 1354 // वसुदत्तो भ्रमन् बाह्यो-द्याने श्रीकान्तमेक्ष्य च / मुमोचाऽसि यदा शत्रौ तदा सोऽप्यमुचच्च तम् // 1355 // तदा मिथोऽसिघातेन निघ्नन्तौ तौ तु निःकृपम् / मृत्वा विन्ध्याटवीमध्ये मृगो सद्यो बभूवतुः॥१३५६॥ मृत्वा गुणमती तत्राटव्यां मृग्यभवत्तदा / मृगी लातु मृगौ तौ तु युध्यन्तौ मृतिमीयतुः // 1357 / / भूत्वा तौ दंष्ट्रिणौ तत्र वने युद्धपरायणो / मृत्वाऽभूतां गजौ तस्मान् महिपौ वृषभौ ततः // 1358 // ततः प्लवङ्गमौ तस्माद् द्वीपिनौ हरिणौ ततः / तत्र युद्ध परौ मृत्वा संजातौ वटपादपौ // 1356il ततो भू-नीर-वृक्षा-ग्नि जम्बुका-म्बु-मृगादिकान् / भवान् भूरीन् भ्रमतः स्म श्रीकान्तवसुदत्तकौ // 1360 // इतो भ्रातृवधोदन्तं श्रुत्वाऽतिदुःखितस्तदा / धनदत्तो विनिर्यातः स्वपुर्या दूरतो गतः // 1361 / / धनदत्तो भ्रमन् भूमौ तृषितो रजनौ भृशम् / उद्यानेऽम्बु ययाचे स साधुपार्वे कृपास्पदम् // 1362 // . ततः साधुर्जगौ नीरं पीयते न हि साधुभिः / यतोऽम्बु जायते भूरि-जीवात्मकं दिनात्यये // 1363 // यतः-“संसजज्जीवसंघातं भुञ्जाना निशि भोजनम् / राक्षसेभ्यो विशिष्यन्ते मूढात्मनः कथं न ते' 1 // 1364 // उक्त च-“मच्छी-कीड-पयंगा केसा अन्नं पिजं असुझं तं / भुजंतरण रत्तिं तं सव्वं भक्खियं णवरं / / अत्थमिए दिणयरे जो भुजइ मूढभावदोसेणं ! सो चउगइवित्यिणं संसारं भमइ पुणरुत्तं // 1366 // लिंगी व अलिंगी वा जो भुजइ सव्वरीसु रसगिद्धो / सो एइ नरयगमणं पावइ अचरित्तदोसेणं।।१३६७।। जे सबरीसु पुरिसा भुजंति हि सीलसंयमविहूणा / महुमजमंसनिरया ते जंति मया महानरयं // 1368 // होणकुलसंभवा विहु पुरिसा उच्छन्नदारधणसयणा / परपेसणाणकारी जे भुत्ता रयणिसमयम्मि // 1366 / / करचरण फुट्ट केसा बीहच्छा दूहवा दरिदा य / तणदारु-जीविया ते जेहिं भुत्तं विप्रालम्मि // 1370 // जे पुण जिणवरधम्मं घेत्तु महुमजमंसविरई च / ण कुणंति राइभुत्तं ते हुति सुरा महिडिया // 1371 // ते तत्थ वरविमाणे देवीमयपरिमिआ विसयसोक्खं / भुजंति दीहकालं अच्छर संगायमाहप्पा // 1372 // चइऊण इहं आया गर वइवंसेतु खायकित्तीसु / उवभुजिऊण सोक्खं पुणरवि पावंति सुरसरिसं // 1373 // पुणरवि जिणवरधम्मे बोहिं लहिऊण गहिअ वयनियमा। काऊण तवं घोरं पावेंति सिवालयं धीरा' // 1374 / 'अस्तं गते दिवानाथे आपो रुधिर मुच्यते / अन्नं मांससमं प्रोक्त मार्कण्डेन महर्षिणा / 1375 / / चत्वारो नरकद्वाराः प्रथमं रात्रिभोजनम् / परस्त्रीगमनं चैव संधानानन्तकायिके' // 1376 / श्रुत्वेति धर्ममाप्तोक्त प्रपद्य धर्ममार्हतम् / धनदत्तो मृतः स्वर्गे प्रथमे समुपेयिवान् // 1377 // तत्र स्वर्गसुखं भुक्त्वा महासुराभिधे पुरे / मित्रवेष्ठिसुतः पद्म-रुचिनामाऽभवत् कृती // 1378 // पद्मरुचि जन् पुर्या मध्ये जरद्गवं वरम् / श्वसन्तं पतितं दृष्ट्वा कृतारावं महीतले // 1376 / / स च पञ्चनमस्कारं गावमश्रावयत्तथा / यथा स श्रधे कर्ण-गतं सुन्दरभावतः // 1380||