________________ जैनगीतासम्बन्धः 100000000000000 तथाहि-दुक्खेहि माणुसत्तं लद्धं जलबुब्बूअोवमं चवलं / गयकएणचवललच्छी कुसुमसमं च जोवणं हवइ / 664|| किंपागफलसरिच्छा भोगा जीअं च सुविणपरितुल्ल / पक्खिसमागमसरिसा बंधवनेहा अइदुरंता // 965 // धन्ना हु तायमाई ते सव्वे उज्झिऊण रजाई / उसभसिरी देमिअत्थं सुगइपहं जे समोइण्णा // 666|| धन्ना ते बालमुणी बालत्तणम्मि गहियसामण्णा / न य णाओ पेमरसो सज्झाए वावडमणेहिं / 667|| भरहाइमहापुरिसा धन्ना ते जे सिरिं पपहिऊणं / णिग्गंथा पव्वईआ पत्ता सिवसासयं सोक्खं / / 668|| 'तरुणत्तमि धम्मं जइहं न करेमि सिद्धिसुहगमणं / गहिरो जराए पच्छा डज्झिस्सं सोगअग्गीणं // 666 // गलगंडसमाणेसु सरीरछीरं तहा वहंतेसु / थणफोडएसु कावि हु हवइ रई मंसपिण्डेसु ! / 1000 // तंबोलरसालित्ते भरिए चित्र दंतकीडयाण मुहे / केरिसया हवइ रई चुबिजते अहरचम्मे // 1001 // अंतो क्यवरभरिए बाहिरमट्ठ सहावदुग्गंधे / को णाम करिज रई जुवइसरीरे णरो मूढो // 1002 // सुरभोगेसु न तित्तो जीवो सुरवरविमानवासम्मि / सो कह अविअण्हमणो माणुसभोगेसु तिप्पिहिइ // 1003 / / एवं भरतभूपस्य ध्यायतोऽसारसंसृतिम् / मनो विरागवद् ज्ञात्वा रामोऽवग् भरतं प्रति // 1004 // त्वपित्रा यद्ददे राज्यं तुभ्यं तद् वत्स ! साम्प्रतम् / भुव धर्म वितन्वानो जिनोक्त शिवसम्पदे / उक्त'च-अम्ह पिअरेण जो विहु भरह ! तुम ठावित्रो महारज्जे / तं भुजसु णिस्सेसं वसुहं तिसमुद्दपेरंतं / / एयं सुदरिसणं तुह वसे य विजाहराहिवा सव्वे / अहयं धरेमि च्छत्तं मंतीव अ लक्खणो णिययं // 2 // होइ तुहं सत्तुहणो चामरधारो भडा य संनिहिया / बंधव ! करेहि रज चिरकालं जाइप्रोसि मया // श्रुत्वेति भरतः प्राह यदुक्त सोदर ! त्वया / तत् सर्वं मयका मौला-वधारि भक्तिपूर्वकम् / / 1007 भुक्ता पृथ्वी प्रजाऽरक्षि दत्तं दानं सुसाधवे / मयाऽतो मेऽधुना चेतो विरागमभवद् भृशम् // 1008|| अनुमन्यध्वमाशु त्वं दीक्षाग्रहणहेतवे / कुरुष्व(वा) प्रतिबन्धं तु मम सम्प्रति सोदर ! // 1009|| यतः-जह इंधणेण अग्गी न तिप्पइ सायरो णइसएहि / तह जीवो वि न तिप्पइ महएसु वि कामभोगेसु // अग्निर्विप्रो यमो राजा समुद्र उदरं गृहम् / सप्त तानि न पूर्यन्ते पूर्यमाणानि नित्यशः / / 2 / / प्रोक्त्वैवं स यदा वृत्त-ग्रहणायोत्थितो तम् / तदा रामेण संरुद्धः स्नेहेन व्याप्तचेतसा // 1010 // तदा सीता विशिल्या च भद्रा भानुमती रमा / सुभद्रेन्द्रमुखीरत्न-वती पद्मा सुकोमला ||1011 / / चन्द्रकान्ता शुभानन्दा-मुख्या लक्ष्मणयोषितः / अन्या अपि वितन्वन्ति क्रीडां भरतसन्निधौ // 1012 / / भरतस्य प्रियाः सर्वाः समेत्य तत्क्ष गात् तदा / रागमुत्पादयन्त्यः श्राक तत्रैत्येति जगुस्तदा // 1013 / / उन्मना सिन्धुरेन्द्रा रयजितपवना वीतयः स्यन्दनाश्च / लक्ष्मी रूपा युवत्यः सततकथितकृत् सेवकाचामरोघाः॥ श्वेतं छत्रं च राज्यं बहुविभवयुतं भोगसौरव्यं विहाय / ___ दीक्षां भिक्षादिकष्टां भरत ! कथमिहालासि सद्योऽधुना त्वम् / / 1015 // भोगान् भुवाऽधुना पूर्व-पुण्यायातान् मनोहरान् / गृह्णीयाश्चरमे काले त्यक्त्वा भोगसुखं किल // 1016 // इत आलानमुन्मूल्य कुम्भी त्रैलोक्यमण्डपात् पातयन् भित्तिवृक्षादीन् समागाद्भरतान्तिके // 1017|| तदा हाहारवं कुर्वन् लोकः सर्को दिशोदिशम् / नष्टो हलिहरी तत्रा-जग्मतुस्त्वरितं स्फुटम् / / 1018 //