________________ 170 शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती 1000000000000 ज्ञानी जगौ त्वया चन्द्र-पुरे पूर्व भवे किल / सोमस्य श्रोहता छन्नं प्रविश्य सदने निशि // 610 // अतोऽनेन भवेऽस्मिश्च तव लक्ष्मी हृता रहः / अत एव न हन्येत विप्र एष वणिग्वर ! / / 911 // पद्म पुरे वणिग वीरो भूपो मन्त्री पुरोहितः / श्रेष्ठिराट श्रीधरश्चापि प्रीतिभाजोऽभवन् मिथः // 912 // अतस्तेषां नृपादीनामिह प्रीतिः परस्परम् / अजायत भृशं पूर्व-भवजस्नेहतः किल / '613 // यतः-“यस्मिन् दृष्ट मनस्तोषः द्वीपश्च प्रलयं व्रजेत् / स विज्ञेयो मनुष्येण बान्धवः पूर्वजन्मनः // 614 // यदुपात्तमर्त्यजन्मनि शुभमयुभं वा स्वकर्मपरिणत्या / तच्छक्यमन्यथा नैव कत्तु देवासुरैरपि // 15 // ततो भीमः समुत्याय मिथ्यादुःकृतपूर्वकम् / प्रोतिं चकार वैरेण समं धर्मप्रदानतः // 16 // ते सर्वे धर्ममार्हन्त्यं कृत्वा स्वर्गसुखं क्रमात् / भुक्त्वा प्राप्य पुनर्जन्म मानुषं सुखदायकम् / / 617 // प्राप्य भूरिभवान् स्वर्गे नृलोके च परस्परम् / आससादुः सुखं शैवं भूपादयोऽखिलाः क्रमात् / / 618 // श्रुत्वेति राघवोऽप्राक्षीद् हस्तो नलेन मारितः / प्रहस्तश्च विनीलेन कर्मणा केन जल्पताम् ? // 616 // केवल्याह पुरे वर्य कुशस्थलाभिधे श्रिया / इन्धकः पल्लवो विप्रा-वभूतां सोदरौ वरौ // 20 // कृषिकर्मरतौ द्वौ च जिनेन्द्रमतसंश्रितौ / सेवेते संयतौ शुद्ध-भिवाया दानतो मुदा // 621 // यतः-रोगिणां सुहृदो वैद्याः प्रभूणां चाटुकारिणः / मुनयो दुःखदग्धानां गणकाः क्षीणसम्पदाम् / / 622 // तत्रैव सोदरौ कृष्ण-मुकुन्दौ वाडवौ सदा / निर्दयौ निन्दनं मौढ्यात् कुर्वाते साधुषु स्फुटम् // 623 // श्रीपुरे भूपतेर्वैरि-मर्दनस्य सुधर्मि(म)णः / दानं लातु गताः कृष्ण-मुकुन्दाद्या द्विजाः क्रमात् // 624|| लोभात् कृष्णमुकुन्दाभ्यां द्विजाविन्धकपल्लवौ / निहतौ हरिवर्षे तु अभूतां युग्मिनौ वृषात् // 12 // मृत्वा कृष्णमुकुन्दौ तु वने कालिञ्जराभिधे / अभूतौ शशकौ पाप-कर्मणा रोगसंयुतौ / / 626 / / यतः-'तिव्वकसायाण इहं पुरिसाणं साधुनिंदणपराणं / इंदियवसाणुयाणं णिय मेणं दोग्गइगमणं // 1 // मृत्वा ततो मृगौ जातौ भीमेऽरण्येऽतिदु खितौ / ततश्च जम्बूको चन्द्रे वनेऽभूतां सरोगिणौ // 627 // एवं भ्रान्त्वा भवास्तिर्यग्-योनिषु प्रचुरांस्तदा / अभूतां तापसौ बाल-तपोनिष्ठौ जटाधरौ // 28 // मृत्वा विष्णुकुमारस्य भूपस्यारञ्जिकापुरे / पुत्रौ हस्तग्रहस्तौ तु प्रशस्तरूपधारिणौ / / 626 / / युग्मिनौ ताविषे गत्वा श्रीपुरे वणि गौ वरौ / अभूतां धर्मकर्मादि-परौ सर्वज्ञसेवकौ // 630' / ततो गत्वा सुरावासे किष्किन्धाढे पुरे वरे / रक्षरजःसुतौ जातौ नलनोलाभिवौ वरौ // 631 // पूर्ववरेण सङ्ग्रामे नलनीलौ नृपाङ्गजौ / नयतः स्म यमावासं हस्तग्रहस्तभूधवौ // 632 // यतः-"जो जेण हो पुव्वं सो तेण हम्मए ण संदेहो / तम्हा ण हणेअब्बो अन्नो मोहादिई सत्त // 633 // जो जीवाणं सेणिय ! देइ सुहं सो भुजए सोक्खं / दुक्खं दुक्खावंतो पावइ नत्थेत्थ संदेहो // 634 // " पुनः पप्रच्छ रामस्तं ज्ञानिनं तु विशिल्यया / किं कृतं सुकृतं येन भवेऽत्र लक्ष्मणस्य तु // 635|| शक्तिविनिर्गता देहा-द्विशिल्याकरसङ्गतः / ततो ज्ञानी जगौ राम ! शृणु प्रष्टव्यमेव हि / / 636 // विजये पुण्डरीकाह धीरस्य चक्रिणः प्रिया / प्रीत्याह्वया सुताऽनङ्ग-श्रीः सञ्जाता लसद्गुणा // 637 // सुप्रतिष्ठपुरीशेन पुनर्वसुखगामिना / हृत्वा यावद् गतो दूरे ताव-तत्रामिलन् खगाः // 638] जायमाने रणे भग्ने विमाने तस्य खेचरैः / क्वचिद्वने पतत् कन्या प्रमेव शशिनो यथा / 636 /