________________ 142 शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती 000000000000000000000000000000000000000000000 गेहगर्भे बुधोपान्ते पठन्ती रतिसुन्दरी / पुरोहितसुतो दृष्ट्वा राग्यभून्मधुपिङ्गलः / / 170 // यतः-'पढमं चित्र पालावो पालावायो रह रइनो वीसंभो / वीसंभालो पणो पण याओ वुडए पेम्मं // 1 // तां कन्यां पिङ्गलो हत्वा विदर्भनगरे वरे / गत्वा कस्मिन् गृहे स्थित्वा भोगी जातो तया समम् // 171|| क्रमानिष्ठितलक्ष्मीकः पिङ्गलस्तृणदारुभिः / विक्रीतैनिजनिर्वाहं कुरुते गेहिनीयुतः // 172 // बहिर्वनेऽन्यदा पत्नी पिङ्गलस्य मनोहराम् / रथकुण्डल आलोक्य हतु कामोऽभवद् हृदि // 173 / / दूतीमुखात् प्रलोभ्याथ कुण्डलो मदनातुरः / अानीय तां स्त्रियं भुङ्क्त लक्ष्मीमिव चतुर्भुजः // 174 / / अनीक्ष्य गेहिनी तत्र पिङ्गलो दुःखितो भृशम् / दीनास्यो नरपोपान्ते गत्वाऽवग मे प्रिया गता // 17 // रथकुण्डल आचष्ट पोतनाभिधपत्तने / एका नारी मया दृष्टा साध्वीपार्वे मनोहरा // 176 / / गत्वा तत्र पुरे पत्नी-मदृष्ट्वा मधुपिङ्गलः / पुनः पश्चात् समेत्याऽवग़ न दृष्टा स्वप्रिया मया // 177 // कुण्डलेन तदा हृत्वा नृपपा च पिङ्गलम् / बहिनिष्कासयामास तत्पन्यासक्तचेतसा // 178|| ततोऽन्यत्र पुरे दीनः पिङ्गलः साधुसन्निधौ / धर्म श्रुत्वा ललो दीक्षां भवासातछिदे तदा // 17 // तपस्तीव्र वितन्वानः पिङ्गलर्षिर्हिमागमे / सहते शीतमुष्णं च तापमन्यत्र यत्नवान् // 18 // दुर्गेऽतिविषमे तिष्ठन कुण्डलो दुईमो बली / अणरणमहीशस्य देशं भनक्ति सन्ततम् // 181 // देशं विनाशितं तेन बहु श्रुत्वा महीपतिः / यियासुरभवद्याव-तं हन्तु कुण्डलं रिपुम् // 182 // तावदादेशमादाय बलचन्द्रो महाभटः / प्रणम्य भूपति हन्तु तं शत्रुम वलत् पुरात् / / 183 / / बलचन्द्रश्छलं कृत्वा गत्वा तत्र रणाङ्गणे | बद्ध्वाथ कुण्डलं दुर्ग तमात्मीयं व्यधात् द्रुतम् // 184 // आगत्य स्वपुरे स्वामि-पार्वे तं बलिनं रिपुम् / मुक्त्वाऽनंसीधदा बल-चन्द्रो हृष्टो नृपस्तदा // 18 // तुष्टो नृपो ददौ तस्मै भृत्याय कमलां बहु / कुण्डलं ताडयित्वाथ चिक्षेप गुप्तिवेश्मनि // 186 // सूनोर्जन्मनि भूपेन रथकुण्डलमण्डितः / मुक्तोऽन्यबन्दिसंयुक्तो हर्षपूरितचेतसा / 187 // गच्छन् वनेऽन्यदाऽन्यत्र रथकुण्डलमण्डितः / साधु दृष्ट्वाऽनमद्धम्म श्रुत्वा च जिनजल्पितम् / 188|| तथाहि-"हिंसा पुण जीववहो सोवि अमंसस्स कारणं होइ / तम्हा कुण जीवदयं सासयसुक्खकए सययं // 1 // [आ] संसारत्था जीवा आसि च्चिय बंधवा परमवेसु / खायंतएणं मंसं ते सव्वे भक्खिा नवरम् / / 2 // जे इत्थ जीववहया महुमंससुराइलोलुया पावा / ते हु मुत्रा परलोए हवंति नरएसु नरेइया // 3 // जो पुण मंसनिविति कुणइ नरो सीलदाणरहिमोवि / सोवित्र सग्गाइगमणं पावइ नत्थेत्थ संदेहो // 4 // " श्रुत्वेति कुण्डलः श्राद्ध-धर्म जीवदयामयम् / अङ्गीचक्रे गुरूपान्ते चञ्चद्विनयपूर्वकम् / / 189 // ततो नत्वा यतिं गच्छन् श्राद्धधर्म जिनोदितम् / प्रपालयन् कुण्डलो याम्य-दिशम्प्रत्यचलत् क्रमात् / / 190 // अटव्यां सलिलाभावात् तृषाऽऽक्रान्तोऽय कुण्डलः / दध्यौ जीव ! त्वया भूरि पीतं वारि पुरा ध्र वम् / / 161 / / यतः "जणेण जलं पीयं घम्मायवजगडिएण तंपि इहं / सव्येसु वि अगड-तलाय-नई-सगुद्द सु नवि हुजा // 1 // नहदंतमं सकेसट्ठिएसु जीवेण विप्पमुक्केसु / तेसुवि हविज केलास-मेरुगिरिसंनिभा कूडा // 2 // हिमवंत-मलय-मन्दर-दीवोदहिधरणितरिसरासीनो / अहिअयरो आहारो छुहिएणाहारिलो हुन्जा / / 3 // पीयं थणयच्छीरं सागरसलिलाउ हुज बहुप्रयरं / संसारम्मि अणंते माऊणं अन्नमन्नाणं // 4 //