________________ 136 शत्रुञ्जय-कल्पवृत्ती 000000.000000000000000000001 0000000000000000000000000000000000000000 पुरन्दरोऽपि राज्यं स्व कीर्तिधराय सूनवे / वितीर्यादाद् व्रतं क्षेमं-धरसूर्यन्तिके मुदा // 6 // राजा कीर्तिधरोऽन्येधु-निविष्टो विष्टरे वरे / राहुणा सितं सूर्य-बिम्ब व्योम्नि व्यलोकयत् // 7 // दध्यौ च नृपतिः सूर्यो राहुणा जगृहे यथा / तथा जीवोऽपि ममता-युक्तो यमेन लास्यते / / 8 / / तस्मादसारमेतद्धि राज्यं नरकदायकम् / लघु मुक्त्वा व्रतं लात्वा तपः कुर्वे शिवाप्तये // 6 // व्रतं लास्यामि भूपेन प्रोक्त मन्त्रीश्वरा जगुः / विना त्वां पृथिवी सर्वा कस्याधारे भविष्यति // 10 // अमात्याग्रहतस्तस्य पातः पृथ्वी नयाध्वना / सहदेवी सुतं वर्य-मसूत शुभवासरे // 11 // जन्मोत्सवे कृते तस्य सुकोसलेति नाम च / दत्वा राज्यं वितीर्या-थ व्रतं कीर्तिधरो ललौ // 12 // गुरूक्त-विधिना तीव्र तपः कुर्वन् निरन्तरम् / भिक्षार्थ नगरे तस्मि-नागात् कीर्तिधरो यतिः / / 13 // यतः-“घोरं तवं तप्पड गिम्हकाले, मेहागमे चिट्ठइ रन्नठाणे। हिमंतमासेसु तवोवणत्थो झाणं पसत्थं विमलं धरे // 1 // भिक्षायै यान्तमालोक्य सहदेवी पतिं निजम् / दध्यौ मे नन्दनस्यैष कान्त एष्यति चक्षुषोः // 14 // यदा तदा विहायाऽऽशु राज्यं लास्यति संयमम् / ततोऽधुना पुरावाह्य-देशे निःकाशयाम्यमुम् // 15 // ततः स्वसेवकोपान्तात् तं यति चान्यलिङ्गिनः / राज्ञी निःकाशयामास पुर्या बहिश्च निःकृपा // 16 // धात्री कीर्तिधरं साधु कर्षितं नगरादहिः / सहदेव्या विलोक्यैव रुरोद करुणस्वरम् // 17 // रुदतीं धात्रिकी वीक्ष्य सुकोसलो जगावदः / माता किं रुद्यतेऽथाऽवग धात्री स्वं नन्दनं प्रति // 18 // वत्स ! मात्रा तवेदानीं पिता भिक्षाकृते स्फुटम् / प्रविष्टो नगरीमध्ये निरकासि पुरादहिः // 16 // अतो रुदाम्यहं बाढं सुकोसलाऽवधारय / यतस्ते जननी हन्ति यति कान्तमपि ध्रुवम् // 20 // तव पित्रादयः पूर्व सर्वे दीक्षा ललुध्र वम् / अतोऽधुना व्रतं मा मे पुत्रोऽसौ लास्यतु ध्र वम् / 21 / / ध्यात्वेति जननी ताव-कीना पतिं यति खलु / पुरान् निःकाशयामास जानीहीदं सुतोत्तम ! / / 22 / / ततः सुकोसलः सद्यो गत्वा पार्श्वे पितुः ध्रुवम् / वैराग्यवासितो जातः श्रुत्वा धर्म जिनोदितम् ||23|| तृणवत् त्वरितं राज्यं त्यक्त्वा राज्यं सुकोसलः / दीक्षां लात्वा समं पित्रा विजहाराऽवनीतले // 24 // रत्नावल्यादि भूयोति तपांसि सन्ततं करन् / सुकोसलयतिः कर्म क्षयति स्म क्षणे क्षणे (पुरार्जितम्)।।२५॥ "रयणावलि मुत्तावलि कणयावलि कुलिसमज्म जवमज्ज / / जियगुणसंपत्ती य विअविही य तह सव्वोभद्दा // 1 // एत्तो तिलोयसारो मुईंगमज्मा पिवीलियामज्झा / सीसं कारयलद्धी दंसणनाणस्स लद्धीय // 2 // अह पंच मंदिरा वि अ केसरिकीला चरित्तजद्धी अ / परिसहजयाय पवयणमाया आइन्नसुहनामा // 3 // पंचनमुक्कारविहि तित्थयर सुया य सोक्खसंपत्ती / धम्मोवएसण लद्धी तहेव अणुवट्टमाणा य // 4 // एमासु अन्नासु अ विहीसु दसमाइ पक्खमासेसु / बेमासिअ तिमासिब खवेइ छम्मास जोएमु // 5 // " एवं तपःपरौ पुत्र-पितरो विपुले वने / गच्छन्तौ निजकर्माणि क्षियतः स्मपुरार्जितम् / / 26 / / इतो मृत्वाऽऽर्तितो राज्ञी सहदेवी दुराशया / तत्रैव कानने व्याघ्री वभूव क्रूरमानसा // 27 // तत्र मेघागमे कृत्वा चतुर्मासी च पारणे / गच्छन्तोऽतो पुरी व्याघ्रया दृष्टः करतराशया // 28 //