________________ 54 तत्त्वसार मनुष्याः। ते आर्य-म्लेच्छ-भोगभूमि-कुभोगभूमिजाश्चतुर्विधाः। तत्रार्याः स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गाः पर्याप्त-लब्ध्यपर्याप्ता स्तथैव म्लेच्छखण्डोत्पन्नाः मनुष्याः / शरीरप्रमाणमुत्कृष्टं धनुषां पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चशतानि / तेषामार्यम्लेच्छखण्डजानामुत्कृष्टमायुः कोटकपूर्वप्रमाणम् / जघन्यमायुश्चान्तर्मुहूर्तम्। किंच आर्यक्षेत्रजा मनुष्या व्रततपोऽणुव्रत-महाव्रतानि लब्ध्वा कर्मक्षयं कृत्वा केचन मोक्षं च लभन्ते, न तु म्लेच्छखण्डजा व्रततपश्चरणाद्यभावात् / भोगभूमिजानां मनुष्याणामुत्तम-मध्यमजघन्यापेक्षया कायोत्सेधः त्रिवयेकक्रोशप्रमाणमनुक्रमेण / आयुश्च त्रिपल्यद्विपल्यैकपल्यप्रमाणं भवेत् / लेश्यास्तु द्रव्य-भावरूपाः शुभाः पीतपशुक्लास्तिस्रो भवन्ति / तीव्रकषायाभावादशुभा न भवन्ति / उत्तम-मध्यम-जघन्यपात्रदानोपाजितपुण्येन ते संभवन्ति / मृताः सन्तः सर्वे स्त्री-पुरुषाः देवति यान्ति, आर्यभावविशेषादितरां गति न गच्छन्ति / स्त्री-पुंलिङ्गाः भवन्ति, नपुंसका नहि भवन्ति / तेषामाहारो बदर विभीतकामलकप्रमाणं वाञ्छितममृतरूपं त्रिदिन-द्विदिनकदिनान्तरेण भञ्जस्ति / वशप्रकाराः कल्पवृक्षाः-मद्याङ्गातोद्याङ्ग-विभूषणाङ्ग-(भाजनाङ्ग) दीपकाङ्ग-ज्योतिरङ्ग-गृहाङ्गभोजनाङ्ग-वस्त्राङ्गरूपाः / एते वाञ्छितं प्रयच्छन्ति / युगलरूपोत्पत्तिस्तेषां छिक्का-जृम्भिकाभ्यां युगपन्नियन्ते ते भोगभूमिजाः। आयुरन्ते मरणं भवति, अकाल-मृत्यभावात्सम्पूर्णपुण्योदयतश्च / कर्मभूमिज मनुष्योंके शरीरका उत्कृष्ट प्रमाण पच्चीस अधिक पांच सौ (525) धनुष है / इन आर्य और म्लेच्छ खण्डज मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटी वर्ष प्रमाण होती है। जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त है। आर्य क्षेत्रमें उत्पन्न हुए मनुष्य व्रत, तप, अणुव्रत और महाव्रतोंको धारण कर कितने ही कर्मोंका क्षय करके मोक्षको प्राप्त करते हैं। किन्तु म्लेच्छखण्डज मनुष्य व्रत, तपश्चरणादिके अभावसे मोक्ष नहीं जाते हैं / भोगभूमिज मनुष्योंके शरीरकी ऊंचाई उत्तमभोगभूमिमें तीन कोश, मध्यम भोगभूमिमें दो कोश और जघन्य भोगभूमिकी अपेक्षा एक कोश प्रमाण होती है / आयु भी तीनों भोगभूमियोंमें अनुक्रमसे तीन पल्य, दो पल्य और एक पल्यप्रमाण होती है। भोगभूमिज जीवोंके द्रव्य और भावरूप पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन शुभ लेश्याएं अनुक्रमसे होती हैं / तीव्र कषायका अभाव होनेसे उनके अशुभ लेश्याएं नहीं होती हैं। उत्तम, मध्यम और जघन्य पात्रोंको दान देनेसे उपार्जित पुण्यसे वे क्रमशः उत्तम, मध्यम और जघन्य भोंगभूमिमें उत्पन्न होते हैं। भोगभूमिज सभी स्त्री-पुरुष मर करके देवगतिको जाते हैं। आर्यभावकी विशेषतासे वे अन्य गतिमें नहीं उत्पन्न होते हैं। भोगभूमिज जीव स्त्रीलिंगी और पुल्लिगी ही होते हैं, नपुंसकलिंगी नहीं होते हैं। उनका आहार क्रमशः बदर (बेर-)प्रमाण, विभीतक-(बहेड़ा-) प्रमाण और आमलक-(आंवला-) प्रमाण वांछित अमृतरूप होता है और वे क्रमसे तीन दिन, दो दिन तथा एक दिनके अन्तरसे आहार करते हैं। वहां पर दश प्रकारके कल्पवृक्ष होते हैं-मद्यांग, आतोद्यांग, विभूषणांग, भाजनांग, दीपकांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग और वस्त्रांग / ये दशों प्रकारके कल्पवृक्ष अपने नामके अनु रूप मनोवांछित वस्तुओंको देते हैं / भोगभूमियां जीव स्त्री-पुरुषके युगलरूपसे उत्पन्न होते हैं और वे छींक और जंभाई लेकर एक साथ मरणको प्राप्त होते हैं। आयुके अन्तमें ही उनका मरण होता है, क्योंकि उनके अकालमृत्युका अभाव है और सम्पूर्ण जीवन भर पुण्यका उदय रहता है। उत्तम भोगभूमिके जीव इक्कीस दिनोंमें, मध्यम भोगभूमिके जीव पैंतीस दिनोंमें और जघन्य भोग