________________ तत्त्वसार क्रोषो नास्ति / अन्ये के के न सन्ति यस्य ? 'माणो माया कोहो य सल्ल लेस्सागो' मानो मानकषायः, माया मायाकषायः, लोभो लोभकषायश्च ? शल्यानि त्रीणि माया-मिया-निवानरूपाणि / लेश्याः षट्-कृष्ण-नील-कापोताल्यास्तिनोऽशुभाः, पीतपदम-शुक्लरूपास्तिस्रो लेश्याः शुभाः। 'जाइ-जरा-मरणं चिय' जातिरुत्पत्तिः, जरा वृद्धावस्था, मरणं दशप्राणाभावात् / जातिश्च जरा च मरणं च जातिजरामरणान्यपि यस्यैते दोषा न स्युः न भवेयुः, स एव निरञ्जनोऽहं भवामीति मत्वा मोक्षेच्छुभिः सुभव्यैः सर्वथाऽसौ निरञ्जनभावो भावनोयो भवतीति भावार्थः // 19 // अथ तस्य निरञ्जनस्य किं किं नास्तीति सूत्रकर्ता भगवानाहमूलगाथा—णत्थि कलासंठाणं मग्गण गुण ठाण जीवठाणाइ / ण य लद्धिबंघठाणा णोदयठाणाइया केई // 20 // संस्कृतच्छाया-न सन्ति कलासंस्थानं मागंणा-गुणस्थान-जीवस्थानानि / न च लब्धि-बन्धस्थानान्युदयस्थानाविकानि कानिचित् // 20 // बहुरि निरंजनका ही लक्षण कहै हैं भा० व०-शुद्ध निरंजन आत्माविर्षे कोई कला नांहीं है, अर कोई संस्थान नाही, अर कोई मार्गणा नांहीं / गति इंद्रिय काय योग वेद कषाय ज्ञान संयम दर्शन लेश्या भव्यत्व सम्यक्त्व संज्ञा आहार इत्यादिक मार्गणा नाही हैं / अर गुणस्थान नांहीं। मिथ्यात्व 1 सासादन 2 मिश्र 3 अविरत 4 देशविरत 5 प्रमत्त 6 अप्रमत्त 7 अपर्वकरण 8 अनिवत्तिकरण 9 सक्ष्ससांपराय 10 उपशांतमोह 11 क्षीणमोह 12 सयोगी 13 अयोगी इत्यादि गुणस्थान नाहीं, जीवस्थान नाहीं / अर लब्धिस्थान कोऊ ही नांहीं है / अर कोई उदयस्थान हूं नांही है // 20 // प्रश्न-उसके अन्य कौन कौन विभाव नहीं हैं ? उत्तर-'माणो माया लोहो य सल्ल लेस्साओ' अर्थात् जिसके न मान कषाय है, न माया कषाय है, न लोभकषाय है, और न माया, मिथ्यात्व और निदानरूप तीनों शल्य हैं, तथा जिसके कृष्ण, नील, कापोतनामको ये तीन अशुभ लेश्याएं, एवं पीत, पद्म और शुक्लरूप तीन शुभ लेश्याएं, ये छहों लेश्याएं नहीं हैं। तथा 'जाइजरा-मरणं चिय' अर्थात् जाति जन्म या उत्पत्ति, जरा-वृद्धावस्था और दश प्राणोंके अभावरूप मरण भी नहीं है / इस प्रकारसे जिसके जन्म, जरा और मरणरूप कोई दोष नहीं है। उक्त प्रकारका निरंजन मैं हूँ, ऐसा मानकर मोक्षके इच्छुक उत्तम भव्यजनोंको सर्वप्रकारसे वह निरंजनभाव भावना करनेके योग्य है / यह इस गाथाका भावार्थ है // 19 // ..पुनः शिष्यने पूछा-उस निरंजन आत्माके और क्या क्या नहीं होते हैं ? इसका उत्तर देते हुए भगवान् सूत्रकार देवसेन कहते हैं ___अन्वयार्थ-उस निरंजन आत्माके (णत्थि कला) कोई कला नहीं है, (संठाणं) कोई संस्थान नहीं है, (मग्गण-गुणठाण) कोई मार्गणास्थान नहीं है, कोई गुणस्थान नहीं है, (जीवट्ठाणाई) और न कोई जीवस्थान है (ण य लद्धि बंधढाणा) न कोई लब्धिस्थान हैं, न कोई बन्धस्थान हैं, (णोदयठाणाइया केई) और न कोई उदयस्थान आदि हैं।