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________________ तत्त्वसार अथाह हो भगवन्, स्वमनसि निश्चलीभूते सति कोहाभावो भवतीति भगवानाहमूलगाथा-समणे णिच्चलभूए ण? सव्वे वियप्पसंदोहे / थक्को सुद्धसहावो अवियप्पो णिच्चलो णिच्चो // 7 // संस्कृतच्छाया-स्वमनसि निश्चलीभूते नष्टे सर्वस्मिन् विकल्पसन्दोहे। स्थितः शुखस्वभावो विकल्पो निश्चलो नित्यः // 7 // टीका-इत्यस्या गाथाया अवतारिकां कृत्वा टीकाकारः पदखण्डनारूपेण व्याख्यानं करोति / तद्यथा-भो भव्यवरपुण्डरीकामरसिंह पृच्छक, भो आत्मन् 'समने' स्वमनसि विकल्पकलापहेतुभूते 'णिच्चलभूए' निश्चलीभूते निष्पन्दीभूते सति 'पटे सव्वे वियप्पसंदोहे' विकल्प्यन्ते विकल्पास्तेषां विकल्पानां सन्दोहः समूहो विकल्पसन्दोहः, तस्मिन् विकल्पसन्दोहे सर्वस्मिन् नष्टे विनष्टे च 'कारणाभावात्कार्य न हि दरीदृश्यत' इति न्यायात् / तदनु 'थक्को सुद्धसहावो' स्थितः भा० व०-अपना मन है सो निश्चलभूत होत संतै अर समस्त विकल्पनिके समूह नष्ट होत संतें शद्ध स्वभाव है सो स्थिर होय है अर अविकल्प कहिए विकल्प-रहित होय है, अर निश्चल है अर नित्य होय है // 7 // - अब शिष्य पूछता है-हे भगवन् ! अपने मनके निश्चलीभूत होनेपर किस प्रकारका भाव होता है, इसका उत्तर देते हुए भगवान् कहते हैं अन्वयार्थ-(समणे) अपने मनके (णिच्चलभूए) निश्चलीभूत होनेपर (सव्वे) सर्व (वियप्पसंदोहे) विकल्प-समूहके (ण8) नष्ट होनेपर (अवियप्पो) विकल्प-रहित निर्विकल्प (णिच्चलो) निश्चल (णिच्चो) नित्य (सुद्धसहावो) शुद्ध स्वभाव (थक्को) स्थिर हो जाता है। . टीकार्य-उक्त प्रकारसे गाथाका अवतरण करके टीकाकार उसका व्याख्यान करते हैं। यथा हे भव्योंमें श्रेष्ठ कमल समान प्रश्नकर्ता अमरसिंह ! हे आत्मन् ! विकल्प-समूहके कारणभूत अपने मनके निश्चल होनेपर अर्थात् परिस्पन्दरूप हलन-चलनसे रहित होनेपर मन स्थितिको प्राप्त हो जाता है / प्रश्न-विकल्प किसे कहते हैं ? उत्तर-मनमें अनेक प्रकारको जो कल्पनाएं उठती हैं, उन्हें विकल्प कहते हैं। इन विविध प्रकारके विकल्पोंके सन्दोह अर्थात् समूह या समुदायके नष्ट होनेपर मन स्वयं ही स्थिर हो जाता है, क्योंकि 'कारणके अभावसे कार्यका होना नहीं देखा जाता है। ऐसा न्याय है। मनकी चंचलता ही सर्व विकल्पोंका कारण है, उसके नष्ट हो जानेपर सभी प्रकारके विकल्प स्वयं शान्त हो जाते हैं / तत्पश्चात् अपने आत्माका रागादि-रहित शुद्ध स्वभाव स्थितिको प्राप्त हो जाता है। प्रश्न-वह शुद्ध स्वभाव किस प्रकारका है ? 'उत्तर-वह शुद्ध स्वभाव अविकल्प है, क्योंकि उसमें कोई विकल्प नहीं होता है /
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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