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________________ तत्त्वसार अथाहोस्विद् विगतसङ्कल्पे सति किम भवतीत्याहमूलगाथा-इंदिय विसयविरामे मणस्स गिल्लूरणं हवे जइया / / ___तइया तं अवियप्पं ससरूवे अप्पणो तं तु // 6 // संस्कृतच्छाया-इन्द्रियविषयविरामे मनसो निर्मूलनं भवेद्यदा। __ तदा तदविकल्पं स्वस्वरूप आत्मनस्तत्तु // 6 // टीका-इत्यवतारिकां कृत्वा वृत्तिकर्ताऽहं विवृणोमि / तथाहि-'जइया' यदा 'इंदियविसयविरामो' स्पर्शनेत्रिय-रसनेन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय- श्रोत्रेन्द्रियाणामिति पञ्चेन्द्रियाणां सप्तविगतिविषयेभ्यो विरमणं विरक्तिरिन्द्रियविरामस्तस्मिन् इन्द्रियविषयविरामे सति मणस्स मनसः जिल्लरणं मनोविकल्पं रूपं तस्य मनसो निक्षूरणं छेदनं त्रोटनं उत्पादनं निर्मूलनमित्येकार्थः। हवे भवेत्, तइया तदा, 'तं अवियप्पं ससरूवे अप्पणोतं तु तत् तत्त्वं अविकल्पं निर्विकल्पा(?) [निर्गता विकल्पा] अस्मिन्निति अविकल्पं, निर्विकल्पः सन् आत्मनः स्वस्वरूपे लीनं तन्मयं भवतीति कियाध्याहारः क्रियते / 'तं तु' तत्तत्त्वं तु पुनरिति रहस्यं ज्ञात्वा तज्जैः तत्त्वज्ञः पुरुषः उपादेयबुद्धचा निरन्तरं वस्तुस्वरूपं भावनीयमिति भावार्थः // 6 // भा० व०-जदि इंदिनिका विषयनित विरक्त होत संतें मनका निर्मूल छेद होय है तदि सो अविकल्पस्वरूप विष आत्मा लीन होय है / भावार्थ-इनिकों विषयनित विरक्त होत संत मन निश्चल होय है / अर मनके निश्चलपना होत संत अविकल्प ध्यान होय है / / 6 // आर्गे याहीकू कहै हैंआत्माके संकल्प-रहित होनेपर आगे क्या होता है ? ग्रन्थकार इसका.उत्तर देते हैं अन्वयार्थ-(जइया) जब (इंदिय विसयविरामे) इन्द्रियोंके विषयोंका विराम अर्थात् इच्छानिरोध हो जाता है (तइया) तब (मणस्स) मनका (पिल्लूरणं) निर्मूलन (हवे) होता है, और तभी (तं) वह (अवियप्पं) निर्विकल्पक स्वगत तत्त्व प्रकट होता है / (तं तु) और वह (अप्पणो) आत्माका (ससरूवे) अपने स्वरूपमें अवस्थान होता है। ____टीकार्य-उक्त प्रकारसे इस गाथाका अवतरण करके टीकाकार मैं कमलकीत्ति इसका * विवरण (स्पष्टीकरण) करता हूं। 'जइया' जब इन्द्रिय-विषयोंका विराम होता है, अर्थात् स्पर्शनइन्द्रियको गुरु-लघु आदि आठ स्पर्शोसे, रसना-इन्द्रियका. तिक्त-कटु आदि पांच रसोंसे, घ्राणइन्द्रियका सुगन्ध आदि दो गन्धोंसे, चक्षु-इन्द्रियका श्वेत-कृष्ण आदि पांच वर्षोंसे और श्रोत्र-इन्द्रियका षड्ज, ऋषभ आदि सात स्वरोंसे, इस प्रकार पांचों ही इन्द्रियोंकी सत्ताईस प्रकारके विषयोंसे विरमण या विरक्ति होती है, तब उसे 'इन्द्रियोंके विषयोंसे विराम' कहते है, उस इन्द्रिय-विषयविराम होनेपर मनका अर्थात् मनके विकल्पोंका निर्मूलन होता है। निरण, छेदन, श्रोटन, उत्पाटन और निर्मूलन, ये सभी एकार्थ-वाचक शब्द हैं / जब मनके विकल्पोंका निर्मूलन अर्थात् जड़-मूलसे अभाव होता है, तब वह निर्विकल्प तत्त्व अर्थात् आत्माका स्वस्वरूपमें अवस्थान होता है / विकल्प जिसमेंसे निकल जाते हैं, उसे निर्विकल्प या अविकल्प कहते हैं / निर्विकल्प होता हुआ आत्मा अपने आत्माके स्व-स्वरूपमें लीन अर्थात् तन्मय होता है। यहां 'भवति' इस क्रियाका अध्याहार किया गया है / 'तं तु वह 'स्वगत निर्विकल्प तत्त्व है' इस रहस्यको जानकर तत्त्वज्ञ पुरुषोंको उपादेय बुद्धिसे निरन्तर वस्तु-स्वरूपकी भावना करनी चाहिए, यह इस गाथाका भावार्थ है // 6 //
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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