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________________ तत्त्वसार मूलगाथा- एगं सगयं तच्चं अण्णं तह परगयं पुणो भणियं / __ सगयं णिय-अप्पाणं इयरं पंचावि परमेट्ठी // 3 // संस्कृतच्छाया-एकं स्वगतं तत्त्वं अन्यं परगतं पुनः भणितम् / ___ स्वगतं निजात्मा इतरत् पञ्चापि परमेष्ठिनः // 3 // टीका तत्त्वमिदं भणितं प्रोक्तम् / कैः, पूर्वाचार्यैः सर्वज्ञश्रीवीतरागदेवैर्वा / तत्रैकं स्वगतं निजात्मगतं तत्त्वमुच्यते। तथैव परं गतं तत्वं परद्रव्यगतं तत्त्वात् / स्वगतं हि वस्तुतया कर्ममल- . कलङ्कभावोद्भवसङ्कल्प-विकल्पभावरहितो निजात्मैव तत्त्वम् / इतरच्च परगततत्त्वं पञ्चविधम् / तथाहि-षट्चत्वारिंशद्-गुणलक्षणलक्षितोऽर्हन् केवलज्ञानभास्करः सर्वज्ञो वीतरागः सकलदेवः। सम्यक्त्वाद्यष्टगुणमूतिः सिद्धात्मा निष्कलः परब्रह्म परमात्मा सिद्धः / पञ्चाचाराविषत्रिंशदगुणविराजमान आचार्यः। एकादशाङ्ग-चतुर्दशपूर्वाणीति पञ्चविंशतिगुणस्वभावाविर्भूत उपाध्यायः / निश्चय-व्यवहाररत्नत्रयात्मकमोक्षमार्ग जिनोक्तयुक्त्या ये साधयन्ति ते साधवः / परा. उत्कृष्टा मा केवलज्ञानादिलक्ष्मीर्यत्र पदे तत्परमं तस्मिन् परमे पदे तिष्ठन्तीति परमेष्ठिनः / पञ्चैव परगततत्त्वमुक्तमिति तत्त्वलक्षणं ज्ञात्वा नयविभागेन दुनिवञ्चनार्थ संसारस्थितिच्छेदनार्थं वा आसन्नभव्यरुपादेयबुद्धचा तत्त्वं चिन्तनीयं भृशमिति भावार्थः // 3 // भा० व०-एक तो स्वगत कहिए निजात्मा ही तत्त्व है। अर अन्य दूसरा परगत तत्त्व है। तहां स्वगत तत्त्व तो निजात्मा है / अर अन्य दूसरा तत्त्व पंच परमेष्ठी है // 3 // अन्वयार्थ-(एग) एक (सगयं) स्वगत (तच्च) स्वतत्त्व है / (तह) तथा (पुणो) फिर (अण्णं) दूसरा (परगयं) परतत्त्व (भणिय) कहा गया है। (सगयं) स्वगत तत्त्व (णिय) निज (अप्पाणं) आत्मा है / (इयर) दूसरा परगततत्त्व (पंचावि परमेट्ठी) पांचों ही परमेष्ठी हैं // 3 // टोकार्थ-सर्वज्ञ श्रीवीतरागदेवोंने और उनके पश्चात् पूर्वाचायाँने तत्त्व दो प्रकारका कहा है-एक स्वगततत्त्व और दूसरा परगततत्त्व / स्वगततत्त्वका अर्थ है-अपना आत्मगततत्त्व / परगततत्त्वका अर्थ है परद्रव्यगततत्त्व / वास्तविक दृष्टिसे कर्म-मल-कलंक-जनित भावोंसे उत्पन्न हुए संकल्प-विकल्पोंसे रहित निज आत्मा ही स्वतत्त्व है। दूसरा जो परगत है, वह पंचपरमेष्ठीके रूपसे पांच प्रकारका है। उनमें छयालीस गुणरूप लक्षणसे लक्षित, केवलज्ञान भास्कर, सर्वज्ञ वीतराग, सकल परमात्मा अर्हन्तदेव प्रथम परमेष्ठी हैं। सम्यक्त्व आदि अष्टगुणरूप मूत्तिके धारक, सिद्धात्मा निष्कल, परमब्रह्म, परमात्मा सिद्ध भगवन्त दूसरे परमेष्ठी हैं, पंचआचारादि छत्तीस गुणोंसे विराजमान आचार्य तीसरे परमेष्ठी हैं। ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप पच्चीस गुणरूप स्वभावके धारक उपाध्याय चौथे परमेष्ठी हैं। जो जिनोक्त निश्चय और व्यवहाररत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गको जिन-प्ररूपित युक्तिके साथ साधन करते हैं वे साधुजन पांचवें परमेष्ठी हैं। प्रश्न-परमेष्ठी किसे कहते हैं ? उत्तर-पर अर्थात् उत्कृष्ट, मा अर्थात् केवलज्ञानादि लक्ष्मी जिस पदमें पाई जावे, उसे 'परम' कहते हैं / उस 'परम' पदमें जो रहते हैं वे परमेष्ठी कहलाते हैं। उक्त स्वरूपवाले पांचों ही परमेष्ठी परगत तत्त्व कहे गये हैं। इस प्रकार नय विभागसे तत्त्वका स्वरूप जानकर अर्थात् निश्चयनयसे निज शुद्ध आत्मा ही 'तत्त्व' है और व्यवहारनयसे
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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