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________________ तत्त्वंसार निक्षेपणसमितिः 4 / निर्जने स्थाने शुद्ध प्रासुके चावलोक्य मलमूत्रश्लेष्मनिष्ठीवनादिकं त्यज्यते यत्र सा व्युत्सर्गसमितिः 5 / मनोगुप्ति-वचनगुप्ति-कायगुप्तित्रयं 3 इति त्रयोदशप्रकारं चारित्रं त्रयोबशविधो धर्मः / अथवा समता-स्तुति-वन्दना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान-कायोत्सर्गविकल्पात् षडावश्यकानि 6 / समितयस्ताः पञ्च / असिद्धिका-निषिद्धिके द्वे 2 / इति त्रयोदशक्रियास्थानरूपो धर्मः। एकेन्द्रिय-सूक्ष्म-बादर-द्वीन्द्रिय-श्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-पञ्चेन्द्रिय - संश्यसंक्षिपर्याप्तापर्याप्तभेदेन रक्षणं यत्रासो जिनोक्तयुक्त्या चतुर्दशविषो धर्मः। चतुर्दशगुणस्थानरूपेण वा। तद्यथा-तथा चोक्तं गोम्मटसारशास्त्रे श्री गोम्मटेन्द्रेण मिच्छा सासणमिस्सो अविरवसम्मो य देसविरदो य / विरवा पमत्त इदरो अपुन्व-अणियहि-सुहुमो य // 5 // उवसंतखीणमोहो सयोगिकेवलिजिणो अजोगी य। चोद्दस जीवसमासा कमेण सिद्धा य गायव्वा // 6 // मिच्छोदएण मिच्छत्तमसद्दहणं तु तच्च-अत्याणं / ___ एयंतं विवरीयं विणयं संसयिदमण्णाणं // 7 // विपरीततत्त्वग्रहणं सांख्य-नैयायिक-वैशेषिक-बौद्ध-चार्वाकादिपञ्चप्रकारमिथ्यारूपं वा यत्र तन्मिथ्यात्वगुणस्थानम् 1 / . . देखकर ग्रहण करना और रखना चौथी आदान-निक्षेपण समिति है 4 / निर्जन, शुद्ध, प्रासुक स्थानमें जीव-जन्तुओंको देखकर मल, मूत्र, कफ, थूक आदिको छोड़ना पांचवीं व्युत्सर्गसमिति है 5 / मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन प्रकारकी गुप्तियां हैं 3 / / :: इस प्रकार तेरह प्रकारके चारित्ररूप तेरह प्रकारका धर्म है 13 / अथवा समता, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कार्योत्सर्गके भेदसे छह आवश्यक 6, पूर्वोक्त पांच समिति 5, असिद्धिका और निषिद्धिका ये दो 2, इस प्रकार तेरह क्रियास्थानरूपसे तेरह प्रकारका धर्म तथाहि * एकेन्द्रिय बादर, सूक्ष्म, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय संज्ञी-असंज्ञी ये सातों पर्याप्त अपर्याप्तके भेदसे चौदह प्रकारके जोवोंका जिनोक्त युक्तिसे रक्षण करना यह चौदह प्रकारका धर्म है / अथवा चौदह गुणस्थानोंके भेदसे चौदह प्रकारका धर्म है 14 / जैसा कि गोम्मटसार शास्त्रमें श्री गोम्मटेन्द्र (नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती) ने कहा है मिथ्यात्व 1, सासादन 2, मिश्र 3, अविरतसम्यक्त्व 4, देशविरत 5, प्रमत्तविरत 6, अप्र• मत्तविरत 7, अपूर्वकरणसंयत 8, अनिवृत्तिकरणसंयत 9, सूक्ष्मसाम्परायसंयत 10, उपशान्त मोह 11, क्षीणमोह 12, सयोगिकेवलीजिन 13 और अयोगिकेवली जिन 14 ये क्रमसे चौदह जीवसमास (गुणस्थान) और सिद्ध जानना चाहिए // 5-6 // मिथ्यात्वकर्मके उदयसे सप्त तत्त्वों और नव पदार्थोंका श्रद्धा नहीं करना मिथ्यात्व नामका प्रथम गुणस्थान है / यह मिथ्यात्व पांच प्रकारका है-एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान मिथ्यात्व // 7 // ___ जहां विपरीत तत्त्वका ग्रहण हो, वह मिथ्यात्व गुणस्थान है। अथवा सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक, बौद्ध और चार्वाक आदि पांच प्रकारके मिथ्या मतोंका श्रद्धान करना मिथ्यात्वगुणस्थान है।
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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