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________________ www तत्त्वसार स्वीकृतोत्तमश्रावकव्रताकृतकारितानुमताहारमङ्गीकृतसंयमासंयमपरिणामाऽनुद्दिष्टाहारस्वरूपा चैकादशी प्रतिमा 11 / इत्येकादशप्रतिमागतजघन्य-मध्यमोत्तमधावकविभेदभिन्न एकावशविषो धर्मः 11 // द्वादशधा धर्माः कथ्यन्ते / तद्यथा-अनशनादिबाह्याभ्यन्तरतपोभेदात् / तत्र षट् प्रकारं बाह्यं तपः / न अशनं अनशनमुपवासः प्रथमं बाह्यं तपः 1 / एकनासाघेकपासन्यूनमाहारादिकं यत्र गृह्यते तदवमोदयं द्वितीयं बाह्यं तपः 2 / सागारापेक्षया वस्तुसंख्यारूपं एकवस्त्वादिग्रहणं वृत्तिपरिसंख्यानं तपः। अनगारापेक्षया एकहाटघर्धग्रामपर्यन्तमटनं भिक्षार्थ यत्र तद् वृत्तिपरिसंख्यानं तृतीयं बाह्यं तपः 3 / मधुर-कटुकाम्लकषायतीक्ष्णरसपञ्चानां दुग्ध-दधि-घृतेक्षुरसतैललवण-षडरसानां वा मध्ये एकरसग्रहणमन्यरसत्यजनमुत्कृष्टं रसपरित्यागतपः / जघन्यपञ्चरसग्रहणमेकत्यागाख्यं चतुर्थं बाह्यं तपः 4 / स्त्री-पुन्नपुंसकतिर्यग्गतिजीवरहितस्थाने शयनासनादिकं यत्र क्रियते सद्विविक्तशय्यासननामधेयं पञ्चमं बाह्यं तपः 5 / चतुर्थ-षष्ठाष्टम-दशमद्वादश-चतुर्दश-पाक्षिक-मासिकोपवासाऽतापनयोगाविसहनं कायक्लेशाख्यं बाह्यं तपः 6 / दशवीं अनुमति (त्याग) प्रतिमा कही जाती है 10 / उत्तम श्रावकके व्रतोंको स्वीकारकर कृत, कारित और अनुमतिसे रहित आहारको अंगीकार करना तथा संयमासंयम परिणामरूप और अनुद्दिष्ट आहारस्वरूप ग्यारहवीं उद्दिष्टाहार त्याग प्रतिमा है 11 / इस प्रकार ग्यारह प्रतिमाओंमें आदिकी छह प्रतिमाओंके पालनेवाले जघन्य श्रावक हैं। मध्यकी तीन प्रतिमाओंका पालन करनेवाले मध्यम श्रावक हैं और अन्तिम दो प्रतिमाओंके पालनेवाले उत्तम श्रावक हैं। इस प्रकार जघन्य, मध्यम और उत्तम श्रावकके भेदवाला यह ग्यारह प्रकारका श्रावकधर्म है 11 / ... अब बारह प्रकारका धर्म कहते हैं—वह बाह्य और आभ्यन्तर तपके भेदसे मूलमें दो प्रकारका है। उनमें बाह्य तप छह प्रकारका है-अशन (भोजन) न करनेको अनशन (अर्थात् उपवास) कहते हैं। यह पहिला बाह्य तप है 1 / पुरुषका जो स्वाभाविक आहार है उसमें एक, दो, चार आदि ग्राससे न्यून आहार आदिको ग्रहण करना दूसरा अवमोदर्य बाह्यतप है 2 / सागार (श्रावक) की अपेक्षा वस्तुको संख्यारूप एक दो वस्तु आदिको ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यान तप.है। अनगार (मुनि) की अपेक्षा एक गली, दो गली आदि अर्धग्राम पर्यन्त भिक्षाके लिए घूमना वृत्तिपरिसंख्यान नामक तीसरा बाह्य तप है 3 / मधुर (मीठा) कटुक, आम्ल (खट्टा) कषाय (कसैला) और तीक्ष्ण (चर्परा) रूप पांच रसों अथवा दूध, दही, घी, इक्षुरस, तेल और लवण (नमक) इन छह रसोंमेंसे एक रसको ग्रहण करना और अन्य रसोंका त्याग करना उत्कृष्ट रसपरित्यागतप है। पांच रसोंको ग्रहण करना और एक रसका त्याग करना जघन्य रस परित्याग तप है। (दो-तीन आदि रसोंको ग्रहण करना और शेषका त्याग करना मध्यम रसपरित्याग तप है।) यह रसपरित्याग नामक चौथा बाह्य तप है 4 / स्त्री, पुरुष, नपुंसक, और तिर्यंच गतिके जीवोंसे रहित एकान्त स्थानमें शयन-आसन आदि करना विविक्तशय्यासन नामका पांचवां बाह्य तप है 5 / चतुर्थ भक्त (एक उपवास) षष्ठभक्त (दो उपवास) अष्टमभक्त (तीन उपवास) दशमभक्त, द्वादशभक्त, चतुर्दश भक्त, पाक्षिक, मासिक उपवासोंके साथ आतापन आदि योगोंके द्वारा शारीरिक क्लेशोंको सहना कायक्लेश नामका छठा बाह्य तप है 6 /
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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