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________________ तत्त्वसार इत्युक्ते कश्चिदासन्नभव्यः प्राह-किलक्षणं तत्त्वमिति चेत् / मूलगाथा-तच्चं बहुमेयगयं पुव्वायरिएहिं अक्खियं लोए। धम्मस्स वत्तण? भवियाण य बोहण8 च // 2 / / संस्कृतच्छाया-तत्त्वं बहुभेदगतं पूर्वाचार्यैराख्यातं लोके। धर्मस्य वर्तनाथं भव्यजनप्रबोधनार्थ च // 2 // टीका-श्रीसर्वज्ञवीतरागमहावीरप्रमुखैः पूर्वाचार्यः लोके जगति तत्त्वं प्रोक्तम् / कथम्भूतम् ? 'बहुभेयगर्य' वस्तुतस्तत्त्वं परमार्थरूपमेकप्रकारम् / व्यवहारेण एकधा-द्विधा-त्रिधाचतुर्धा-पञ्चधा-षोढा-सप्तधा-अष्टधा नवधा-दशधा-प्रभृतिसंख्यातासंख्यातानन्तप्रकारम् / ततो बहुभेदगतम्, बहवश्च ते भेदाश्च बहुभेदास्तान् बहुभेदान् गतं प्राप्तं बहुभेदगतं तत्त्वं कथितम् / किमर्थम् ? धम्मस्स वत्तणठं धर्मस्य वर्तनार्थम्। स धर्मः परमार्थेन वस्तुस्वरूप एकधा / व्यवहारेण सागारानगारधर्मभेदेन द्विविधः। रत्नत्रयात्मकस्वरूपस्त्रिविधो धर्मः। चविधाराधना दर्शन-ज्ञान-चारित्र-तपः-स्वरूपश्चतुविधश्च धर्मार्थकाममोक्षभेदेनापि चतुर्विधः, प्रथमानुयोग-करणानुयोग-चरणानुयोग-द्रव्यानुयोगभेदाच्च __ भा० व०-लोकविर्षे पूर्वाचार्यनि. तत्त्व है सो बहुत भेदनिकं प्राप्त भया कहत भये धर्मका प्रवर्तन के अथि 1 बहुरि भव्यनिका प्रबोधन जो ज्ञानकी उक्तिका कारण, ताकै अथि // 2 // आगें दो प्रकार तत्त्व कहै हैंविकल्पोंका त्याग आवश्यक है / जब तक इनका त्याग नहीं होगा, तब तक शुद्ध ध्यानकी प्राप्ति असंभव है / यह सब कथन देवसेनाचार्यने इस ग्रन्थमें आगे यथास्थान किया है। उस्थानिका-किसी निकट भव्यने पूछा-हे भगवन् ! उस तत्त्वका क्या लक्षण है ? आचार्य इसका उत्तर देते हैं अन्वयार्थ-(लोए) इस लोकमें (पुव्वायरिएहिं) पूर्वाचार्योंने (धम्मस्स वत्तणटुं) धर्मका प्रवर्तन करनेके लिए (च) तथा (भवियाण पबोहणटुं) भव्यजीवोंको समझानेके लिए (तच्चं) तत्त्वको (बहुभेयगयं) अनेक भेदरूप (अक्खियं) कहा है। टोकार्थ-श्री सर्वज्ञ, वीतराग महावीर प्रमुख पूर्वाचार्योंने लोक अर्थात् इस जगत्में तत्त्व. को अनेक भेदकाला कहा है / वस्तुतः परमार्थरूपसे तत्त्व एक ही प्रकार है किन्तु व्यवहारसे एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, दशको आदि लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकारका है, इसलिए श्रीदेवसेनाचार्यने उसे 'बहुभेदगत' कहा है। अर्थात् वह तत्त्व बहुत भेदोंको प्राप्त है। प्रश्न-पूर्वाचार्योंने तत्त्वका कथन किसलिए किया है ? उत्तर-धर्मका प्रवर्तन करनेके लिए और भव्यजीवोंको प्रबोध देनेके लिए पूर्वाचार्योंने तत्त्वका कथन किया है। वह धर्म परमार्थसे अर्थात् निश्चयनयसे वस्तुस्वरूपात्मक एक ही प्रकारका है। व्यवहारनयसे सागार-(श्रावक-) धर्म और अनगार-(मुनि-) धर्मके भेदसे दो प्रकारका है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रस्वरूप रत्नत्रयकी अपेक्षा तीन प्रकारका है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओंके भेदसे वह धर्म चार प्रकारका है / अथवा धर्म, अर्थ, काम और
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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