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________________ तत्त्वसार अथ श्रीनेमीश्वर-महातीर्थादियात्राविहारकर्म विधाय व्याघुटय च श्रीपथपुरमागत्य महामहोत्सवपूर्वकं धर्मोपदेशं कुर्वतः सत्यतो मे यथा भेदेतररत्नत्रयात्मकमोक्षमार्गभावनां भावयतस्तर्थत्वदान्न(?) क्ष्मीकृतपरमार्थरतसुलक्षणेन अंतोषतनयेन मतिमयेन ठः श्रीलब्धनामधेयेनेदं वचः प्रोक्तम्-भो कृपावारिसागर, चतुर्गतिसंसाराम्बुधियान, भट्टारक धोकमलकोत्तिदेव, चतुर्विधसंघकृतसेव, संसार-शरीर-भोगनिर्ममो मदीयो नाथोऽयं तत्त्वातत्त्व-हेयोपादेयपरिज्ञानलालसः श्री अमरसिंहो वरीवत्ति / ततस्तत्त्वोपदेशेन बोध्यते चेत्तदा वरम् / इत्याकाऽऽकुलीभूतमानसे मुहविमृश्याल्पमतिनापि मया चिन्तितमिति सर्वविद्योक्ततत्वोपदेशे पुण्यं भविष्यति, पुण्येन तत्वसारोपदेशाख्यं शास्त्रं सम्पूर्ण भविष्यतीति मत्वा तत्त्वसारविस्तारावतारं भावनाग्रन्थं कतुं -- समुद्यतोऽहमभवम् / _अथासन्नीकृतोऽपारसंसारतोरेणान्तर्भावितसकल-केवलज्ञानमूत्तिसर्वविन्महावीरेण समाविष्कृत-समयसार-चारित्रसार-पञ्चास्तिकायसार-सिद्धान्तसारादिसारणसमूरीकृतबाह्याभ्यन्तरदुर्द्धरद्वादशविधतपोभारेण समभ्यसितसम्यक्त्वाद्यष्टगुणालङ्कृतपरमात्मस्वभावेन तिरस्कृतासंसारायाताज्ञानोद्भवलोकमात्रसङ्कल्पविकल्पात्मकविभावेन भस्मीकृतद्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्ममलकलङ्कानां सिद्धानां द्रव्य-भावरूपां स्तुति कतुकामेन भेदाभेदरत्नत्रयानुभवोद्भवसम्यग्ज्ञानमहा श्रीनेमीश्वर-महातीर्थ ऊर्जयन्तगिरि (गिरनार पर्वत) महातीर्थ आदि सिद्ध क्षेत्रोंकी (वन्दना) यात्रारूप विहार कार्यकर और लौटकर 'श्रीपथपुरमें आकर महामहोत्सव-पूर्वक धर्मोपदेश करते हुए जब मैं भेदाभेदरूप रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्गकी भावना कर रहा था, तब वहाँके..."परमार्थरत सुलक्षणवाले ठाकुर सन्तोषके सुपुत्र, मतिमान् ठाकुर श्रीनामधारकने यह वचन कहे हे कृपावारिसागर, हे चतुर्गति रूप संसार-सागरसे तारनेके लिए यान (जहाज ) रूप, हे चतुर्विध संघद्वारा सेवित भट्टारक श्री कमलकीर्ति देव ! संसार, शरोर और भोगोसे ममता-रहित मेरा यह स्वामी श्री अमरसिंह, तत्त्व-अतत्त्व और हेय-उपादेयके जाननेकी लालसावाला है, इसलिए तत्त्वोंके उपदेश द्वारा यदि इसे आप प्रबोधित करें, तो बहुत उत्तम हो ! यह सुनकर आकुलित हुए अपने मनमें बार-बार विचार कर अल्पबुद्धि होते हुए भी मैंने चिन्तवन किया-सर्वज्ञ-देव-द्वारा कहे गये तत्त्वोंका उपदेश करनेपर मेरे महान् पुण्य होगा और उस पुण्यसे यह सारभूत तत्त्वोंका उपदेश करनेवाला यह तत्त्वसार नामक शास्त्र सम्पूर्ण हो जायगा, ऐसा विचार कर मैं तत्त्वसारके विस्तारावताररूप भावना ग्रन्थको करनेके लिए उद्यत हो गया। . __ जिन्होंने इस अपार संसार-सागरके तीरको समीपवर्ती किया है, जिन्होंने अपने अन्तरमें सम्पूर्ण केवलज्ञान मूर्तिरूप सर्वज्ञ महावीरको भावित किया है, जिन्होंने सम्यक् प्रकार आविष्कार किये गये समयसार, चारित्रसार, पंचास्तिकायसार, सिद्धान्तसार आदि ग्रन्थोंके अध्ययन और अनुस्मरणसे बाह्य और आभ्यन्तर द्वादश प्रकारके दुर्धर तपोभारको स्वीकार किया है, जिन्होंने सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे अलंकृत सिद्ध परमात्माके स्वभावका सम्यक् प्रकारसे अभ्यास किया है, जिन्होंने अनादि संसारवाससे संलग्न अज्ञानसे उत्पन्न हुए लोक-प्रमाण असंख्यात संकल्प और विकल्पात्मक विभावोंका तिरस्कार किया है, जिन्होंने द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मरूप मल और कलंकको भस्म करनेवाले सिद्ध भगवन्तोंकी द्रव्य और भावरूप स्तुति करनेकी इच्छा की है, भेदा१. रयधु-रचित हरिवंश पुराणकी प्रशस्तिके अनुसार कमलकीति सोनागिरिके भट्रारक थे / अत: उसके समीपवर्ती वर्तमान शिवपुरी नगरीका ही उन्होंने 'श्रीपथपुर' नामसे उल्लेख किया है |--अनुवादक
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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