________________ 26 तत्त्वसार एक आशीर्वादात्मक पद्य दिया है। तथा ग्रन्थके अन्तमें भी उन्हींको सम्बोधित करके कहा है कि हे संसारभीरु अमरसिंह, प्रसिद्ध अष्ट गुणोंसे युक्त सिद्ध भगवन्त तुझे सिद्धि-प्रदाता हों। प्रत्येक पर्वकी अन्तिम प्रशस्तिका निर्माण सर्वत्र एक ही प्रकारकी पदावलीमें करके अपनी टीकाको अति निकट भव्यजनोंको आनन्दकारक, कायस्थ माथुरान्वय शिरोमणिभूत, भव्यवर पुण्डरीक अमरसिंहके मानस-कमलको विकसित करनेके लिए दिनकरके समान, भट्टारकश्रीकमलकीर्तिदेव विरचित तत्त्वसारका विस्तारावतार कहा है। प्रत्येक गाथाकी टोका प्रारम्भ करते हुए गाथाके प्रथम चरणको देकर इत्यादि कहते हुए उसे पद-खण्डनाके रूपसे व्याख्यान करनेका उल्लेख किया गया है। पदखण्डना पदका अर्थ खण्डान्वयी टीकासे है, जिसमें प्रायः क्रियापदको देकर पुनः 'कम्', 'कथम्भूतम्' आदि प्रश्न उठाते हुए गाथाका विवरण किया जाता है। हमने कहीं भी 'पदखण्डनारूपेण' इस पदका अर्थ नहीं लिखा है। टीकाके अध्ययन करने पर पाठक स्वयं ही यह अनुभव करेंगे कि टीकाकार कमलकीर्ति को गुरुपरम्परासे अध्यात्मशास्त्रोंका अच्छा ज्ञान प्राप्त था और वे तत्वसारके रहस्यके पारंगत विद्वान् थे। भाषा छन्दकारका परिचय प्रस्तुत तत्त्वसारकी मूलगाथाओंका पं० द्यानतरायजीने दोहा, चौपाई और सोरठा छन्दमें : पद्यानुवाद किया है, जिसे मूलगाथाकी संस्कृत छायाके नीचे दिया गया है। इन छन्दोंको पढ़ते हुए पाठक अनुभव करेंगे कि उन्होंने तत्त्वसारके मर्मको किस प्रकारसे एक-एक छन्दमें भरकर 'गागरमें सागर' भरनेकी लोकोक्तिको चरितार्थ किया है। यह छन्दोबद्ध-रचना द्यानतरायजी द्वारा रचित धर्म-विलासमें संकलित है। इसमें कुल 79 छन्द हैं / जिसमेंसे तत्त्वसारको 74 गाथाओंसे 74 छन्दोंके अतिरिक्न एक दोहा मंगलाचरणका है और 4 सोरठा अन्तमें प्रार्थनारूप हैं। कवि द्यानतरायजी आगरा-निवासी थे। इनका जन्म अग्रवाल जातिके गोयल गोत्रमें हुआ था। इनके पितामहका नाम वीरदास और पिताका नाम श्यामदास था। द्यानतरायजीका जन्म वि० सं० 1733 में हुआ था। इन्होंने अनेक उपदेशी भजन, पूजा-पाठ, स्तोत्र आदि स्वतंत्र रचनाओंके अतिरिक्त अनेक प्राचीन संस्कृत और प्राकृत रचनाओंका भी हिन्दी भाषाके छन्दोंमें पद्यानुवाद किया है। कविने अपनी समस्त रचनाओंका संकलन वि० सं० 1780 में धर्मविलासके नामसे किया है। __- भाषा-वचनिकाकारका परिचय तत्त्वसारके प्रस्तुत संस्करणमें ब्यावर-सरस्वती भवनसे प्राप्त एक भाषावचनिका भी दी गई है। इसे श्री पन्नालाल चौधरीने बि० सं० 1931 के वैशाखवदी सप्तमी गुरुबारके दिन रच कर पूर्ण किया है। यह बात वचनिकाके अन्तमें दी गई प्रशस्तिसे सिद्ध है। ये पन्नालाल चौधरी कहाँके रहने वाले थे और किस जैनकुलमें उनका जन्म हुआ था, इसका कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। वचनिकाकी भाषाको देखते हुए ये राजस्थानके रहने वाले होना चाहिए।. .