________________ तत्त्वसार संयुक्त, रूपादिसे रहित अरूपी सिद्धोंके समान, अचल, अविनश्वर और शुद्ध विचार करना रूपातीत ध्यान है। - यहां यह ज्ञातव्य है कि आ० देवसेनने रूपस्थ ज्यानको सालम्ब कहकर दो भेद किये हैंस्वगत और परगत ) पंचपरमेष्ठीके स्वरूप-चिन्तनको परगत रूपस्थ ध्यान कहा है और अपने शरीरसे बाहिर स्फुरायमान तेजस्वी सूर्यके सदृश आत्माके स्वरूप-चिन्तनको स्वगत रूपस्थ ध्यान कहा है। उन्होंने रूपातीत ध्यानको 'गतरूप' नाम दिया है और उसे निरालम्ब कहते हुए लिखा है कि जहाँ न देहके भीतर कोई चिन्तन हो, न देहके बाहर हो और न स्वगत-परगतरूप कोई चिन्तन हो / न धारणा-ध्येयका विकल्प हो, न मनका कोई व्यापार हो / जहाँ इन्द्रियों के विषयविकार न हों और जहाँ राग-द्वेषका अभाव हो, ऐसी निर्विकल्प समाधिको निरालम्ब गतरूप (रूपातीत) ध्यान जानना चाहिए। यद्यपि आ० देवसेनने भाव संग्रहमें पिण्डस्थ ध्यानके पार्थिवी धारणा आदि भेद नहीं किये हैं, तथापि परवर्ती ध्यान-विषयक ग्रन्थोंमें, अनेक श्रावकाचारोंमें और खासकर ज्ञानार्णवमें धारणाओंका बहुत विशद और विस्तृत वर्णन किया गया है। पाठकोंकी जानकारीके लिए यहाँ उन पांचों धारणाओंका संक्षेपसे वर्णन किया जाता है 1. पाथिवी धारणा-इस मध्यलोकको क्षीरसमुद्रके समान निर्मल जलसे भरा हुआ चिन्तन करे। पुनः उसके मध्यमें जम्बूद्वीपके समान एक लाख योजन विस्तृत, एक हजार पत्रवाला, संतप्त सुवर्णके सदृश चमकता हुआ एक कमल विचारे / कमलके बीचमें कणिकापर सुमेरु पर्वतका चिन्तन करे। उसके ऊपर पांडकवनमें पांडक शिला पर स्फटिकमणिमयी सिंहासनके ऊपर अपनेको बैठा हुआ कल्पना करे और यह विचारे कि मैं यहाँ कर्मोंको जलाकर अपनी आत्माको पवित्र करने के लिए बैठा हूँ / इस प्रकारसे चिन्तन करनेको पार्थिवी धारणा कहते हैं। ,, 2. आग्नेयी धारणा-उक्त पांडुक शिलापर बैठा हुआ ध्यानी अपनी नाभिके मध्यमें ऊपरकी ओर उठा हुआ एवं खि गोलह पत्रवाला एक श्वेत कमल विचार करे। उसके प्रत्येक पत्र पर पीत वर्ण के अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लू, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः इन सोलह स्वरोंको प्रदक्षिणाके क्रमसे लिखा हुआ विचार करे। इस कमलके मध्यमें श्वेत वर्णको कणिका पर 'है' अक्षर लिखा हुआ सोचे। इस कमलके ठीक ऊपर हृदय-प्रदेशमें अधोमुख, आठ पत्र वाला मलिन वर्णका आठ दलवाला एक कमल कल्पना करे और उसके आठों पत्रों पर कृष्ण वर्ण 1. वण्ण-रस-गंध-फासेहिं वज्जिओ णाण-दसण सरूवो। जं झाइज्जइ एवं तं झाणं रूवरहियं ति // 476 // (वसुनन्दि श्रावकाचार) 2. ण य चितइ देहत्थं देहबहित्थं ण चिंतए किंपि। . ण सगय-परगयरूवं तं गयरूवं णिरालंबं // 628 / / जत्थ ण करणं चिंता अक्खररूवं ण धारणा धेयं / ण य वावारो कोई चित्तस्स य तं णिरालंबं // 629 / / इंदियविसयवियारा जत्थ खयं जंति राय-दोसं च / मणवावारा सन्वे तं गयरूवं मुणेयव्वं // 630 / / (भावसंग्रह) 3. ज्ञानार्णव सर्ग 37 श्लोक 4-9 /