SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना करते रहनेसे धीरे-धीरे कुछ दिनोंमें संकल्प-विकल्पोंका उठना कम होता जायगा और आत्मस्वरूपमें स्थिरता बढ़ने लगेगी। उक्त चार भेदोंके अतिरिक्त धर्मध्यानके और भी चार भेदोंका वर्णन ध्यान-विषयक शास्त्रों में किया गया है-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत / यद्यपि इन भेदोंका उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र एवं उसकी दि० श्वे० टीकाओंमें, तथा मूलाचार, भगवती आराधना, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग, भगवतीसूत्र, ध्यानशतक आदि ग्रन्थोंमें नहीं किया गया है। किन्तु आ० देवसेनने अपने भावसंग्रहमें इनका वर्णन किया है और परवर्ती ज्ञानसार, तत्त्वानुशासन ध्यानस्तव और ज्ञानार्णव आदि ध्यान-विषयक शास्त्रोंमें तथा वसुनन्दि श्रावकाचार आदि अनेक श्रावकाचारोंमें इनका विस्तृत वर्णन किया गया है। यहां यह ज्ञातव्य है कि श्रावकाचारोंमें श्रावकोंके कर्तव्य-विशेषोंके रूप में इनका वर्णन किया गया है, वहाँ भाव-संग्रह आदि ध्यान-विषयक शास्त्रोंमें साधुके लिए धर्मध्यानके रूपमें इनका वर्णन है। 1. पिण्डस्थध्यान-पिण्ड नाम देहका है, उसके भीतर स्थित अपनी आत्माको अतिविशुद्ध, स्फुरायमान श्वेत किरण रूप निर्मल तेजस्वी सूर्यके समान प्रकाशवान् एवं विमल गुणवाले आत्म-स्वरूपका चिन्तन करना पिण्डस्थ ध्यान है / 2. पदस्थध्यान-पंचपरमेष्ठीके वाचक एक अक्षररूप 'ओं', दो अक्षररूप 'सिद्ध', तीन अक्षररूप 'ओं नमः', चार अक्षररूप 'अरहंत', पाँच अक्षररूप 'अ सि आ उ सा' आदि से लगाकर : 35 अक्षररूप पंच परमेष्ठी-नमस्कार (णमोकार) मंत्रका जप करना, पंच परमेष्ठीके स्वरूपका चिन्तन करना पदस्थध्यान हैं। 3. रूपस्थध्यान-शरीरमें स्थित आत्माको समवशरणमें स्थित अरिहंत भगवान्के समान आठ प्रातिहार्य और अनन्तचतुष्टयसे संयुक्त चिन्तन करना रूपस्थध्यान है। 4. रूपातीतध्यान अपनी आत्माको सर्व कर्ममलसे रहित, अनन्तज्ञानादि अनन्त गुणोंसे .1: पिंडो वुच्चइ देहो तस्स मज्झट्ठिओ हु णिय अप्पा।' झाइज्जइ अइसुद्धो विप्फुरिओ सेयकिरणटो / / 620 // देहत्थो. झाइज्जइ देहस्संबंधविरहिओ णिच्चं / णिम्मलतेयफुरतो गयणतले सूर बिवेव // 621 // . जीवपएसपचयं पुरिसायारं हि णिययदेहत्थं / . . अमलगुणं झायंतं णाणं पिंडत्थअहियाणं // 622 / / (भावसंग्रह) 2. एयपयमक्खरं जवियइ जं पंचगुरुरूवसंबंधं / तं पिय होइ पयत्थं झाणं कम्माण णिद्दहणं // 627 / / (भावसंग्रह) पणतीस सोल छप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह / परमेटिठवाचयाणं अण्णं च गरूवएसादो // 48 // (द्रव्यसंग्रह) 3. वर अट्ठपाडिहेरेहिं परिउट्ठो समवसरणमझगओ। .. परमप्पाणंतचउट्ठयण्णिओ पवणमग्गट्ठो / (473) . जं झाइज्जइ एवं रूवत्थं जाण तं झाणं // 475 उत्तरार्ध (वसुनंदिश्राव०)
SR No.004346
Book TitleTattvasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Siddhantshastri
PublisherSatshrut Seva Sadhna Kendra
Publication Year1981
Total Pages198
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy