________________ 110 तत्त्वसार स्त्रीपुन्नपुंसकतिरश्चाविवजितस्थाने यत्र स्थीयते यतिनाथव भिन्नत्वेन शय्यासनत्वेनापि, तद्विविक्तशय्यासनाल्यं पंचमं बाह्यं तपः 5 / वर्षाशीतोष्णकालोदभवपरीषहोपसर्गाद्यातापनयो यंत्र क्लिश्यते तत्कायक्लेशाभिधं षष्ठं बाह्यं तपः 6 / इति षड्विधं बाह्यं तपः। ___अथाभ्यन्तरतपःकथनमाह-प्रायश्चित्त-विनय-वैयावृत्त-स्वाध्याय-व्युत्सर्ग-ध्यानानीति। तथाहि-वर्तमानकालकृतापराधेन जीवेन देवस्याग्ने गुरोरने चालोच्यते निवेद्यते (स्वागः) तदालोचनम् 1 / अतीतकालापेक्षया कृतदोषनिराकरणं प्रतिक्रमणम् 2 / आलोचन-प्रतिक्रमणाम्यां निराकरणं क्रियते तदुभयम् 3 / कृतापराधे सत्यात्मानं परं विवेचनं पृथक्करणं विवेकः 4 / शरीरादिपरद्रव्यं व्युत्सयते त्यज्यते व्युत्सर्गः 5 / पूर्वोक्तप्रकारेण बाह्याभ्यन्तरं तपः 6 / कृतापराधे सति दिन-पक्ष-मास-वर्षाविभेदेन छिद्यते लघुः क्रियते छेदः७। कृतापराधस्य परिहरणं परिहारः स्त्री, पुरुष, नपुंसक और तिथंच आदिसे रहित एकान्त शान्त स्थानमें मुनिनाथके समान बैठना और सबसे भिन्न संस्तर पर शयन करना सो वह विविक्तशय्यासन नामका पांचवां बाह्य तप है 5 / ___ वर्षाकाल, शीतकाल और उष्णकालमें उत्पन्न होनेवाले परीषह, उपसर्गादि तथा आतापनयोगादिके द्वारा जो शारीरिक कष्ट सहे जाते हैं, उसे कायक्लेश नामका छठा बाह्य तप कहते हैं 6 / इस प्रकार ये छह बाह्य तप हैं। अब आभ्यन्तर तपोंका कथन करते हैं-आभ्यन्तरतप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यानके भेदसे छह प्रकारका है। . इनका विवरण इस प्रकार है-पहिला आभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त है। (अपने किये गये अपराधको स्वीकार कर गुरु-प्रदत्त दण्डको स्वीकार करना प्रायश्चित्त कहलाता है। ) वह नौ प्रकारका कहा गया है। वर्तमान काल में किये गये अपने अपराधको देवके आगे, या गुरुके आगे निवेदन करना आलोचना नामका पहिला प्रायश्चित्त है 1 / अतीत कालकी अपेक्षा किये हुए दोषोंका निराकरण करना प्रतिक्रमण नामका दूसरा प्रायश्चित्त है 2 / वर्तमान और भूतकालमें किये गये दोषोंका आलोचन और प्रतिक्रमणके द्वारा निराकरण करना तदुभयनामका तीसरा प्रायश्चित्त है 3 / किसी गुरुतर अपराधके किये जानेपर अपनेको दूसरेसे पृथक् करना विवेक नामका चौथा प्रायश्चित्त है। किसी और भी बड़े अपराधके होनेपर गरुके द्वारा जो शरीर आदि परद्रव्यका त्याग कराया जाता है, वह व्युत्सर्ग नामका पांचवां प्रायश्चित्त है 5 / अपराध विशेषके होनेपर गुरु-प्रदत्त पूर्वोक्त प्रकारके बाह्य और आभ्यन्तर तपोंका यथाविधि पालन करना तपनामका छठा प्रायश्चित्त है 6 / किसी महान् अपराधके होनेपर दिन, पक्ष, मास, वर्ष आदिके भेदसे जो गुरु-द्वारा दीक्षाका छेद कर दिया जाता है और उसको साधु-पर्यायको लघु कर दिया जाता है, वह छेद नामका सातवां प्रायश्चित्त है 7 / किसी और भी महान् अपराधके होनेपर संघसे बाहिर कर देना परिहार नामका आठवां प्रायश्चित्त है 8 / परिहार या संघ-बहिष्कारसे भी जिसकी शुद्धि न हो सके ऐसे और भी गुरुतर अपराधके होनेपर कुछ दिनों तक संघसे बाहिर रखनेके पश्चात् पूर्व दीक्षाको सर्वथा छेदकर उस साधुको पुनः महाव्रतोंमें उपस्थित कर नवीन