________________ 106 तत्त्वसार . टीका-तयाहि-भुजतो' इत्यादि, यदि चेत् स एव योगी ध्याता पुराजितशुभाशुभविपाकाश्रितकर्मफलं भुजानः सन् निर्मोहशुखात्मतत्त्वाद्विलक्षणेन मोहेन शुभं शुभोपयोगरूपं अशुभमधुभोपयोगरूपं वा भावं परिणामं करोति, 'तो पुणो वि बंधई' तदा पुनरपि बध्नाति / कि तत् ? 'माणावरणावि अविह' मतिज्ञानादिपंचत्रकारं ज्ञानामावृणोतीति ज्ञानवरणमादियस्य तमानावरणादि / पुनः किं विशिष्टमष्टविषमष्टप्रकारं कर्म संचिनुते निर्मोहशुद्धबुद्धकस्वभावपरमात्मनो विपरीलान्मोहोषयाविति मत्वा स एव मोहस्त्याज्यो भवतीति भावार्थः // 52 // अथ यावद्योगी सूक्ष्ममपि रागं न मुञ्चति तावन्मुक्तो न भवतीति प्रतिपादयति-. मूलगाथा-परमाणु मित्तरायं जाम ण छंडेइ जोइ समणम्मि। सो कम्मेण ण मुच्चइ परमट्टवियाणओ समणो // 53 // संस्कृतच्छाया-परमाणुमात्र राग यावन्न मुश्चति योगी स्वमनसि। स कर्मणा न मुच्यते परमार्थविज्ञायकः श्रमणः // 53 // . आगें कहें हैं—जितने परमाणूमात्र भी राग है तितने कर्मनिकरि नाही छूट है भा० व०-योगीजननें स्व-मन विर्षे परमाणुमात्र राग नांही छोड़े है सो श्रमण कहिए मुनि कर्मनिकरि नांही छूट है। कैसा मुनि ? परमार्थका जाननेवाला। भावार्थ-जितने काल राग जो वीतरा। सर्वज्ञका तत्त्वसू विलक्षण कहिए विपरीत मिथ्यात्वका उदयकरि उपज्या राग परिणामकू नाही त्यज है। कितनाक राग? परमाणूमात्र हू। अणु शब्द करि सूक्ष्म जाननां; टीकार्य-'भुजंतो कम्मफलं' इत्यादि गाथाके अर्थका व्याख्यान करते हैं यदि वही ध्यान करनेवाला योगी पूर्वोपार्जित शुभ-अशुभ विपाकके आश्रित कर्मफलको भोगता हुआ मोह-रहित शुद्ध आत्मतत्त्वसे विलक्षण मोहसे शुभ-शुभोपयोगरूप, अथवा अशुभ-अशुभोपयोगरूप भावपरिणामको करता है तो पुणो वि बंधइ' तब वह फिर भी बांधता है / / प्रश्न-किसे बांधता है ? . उत्तर-'णाणावरणादि अट्ठविहं' अर्थात् मतिज्ञानादि पांच प्रकारके ज्ञानको जो आवृत या आच्छादित करता है, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते हैं / ऐसा ज्ञानावरण है आदिमें जिसके ऐसे आठ प्रकारके कर्मको बांधता है अर्थात् नवीन कर्मोका संचय करता है। प्रश्न-किसके निमित्तसे बांधता है ? उत्तर-मोह-रहित शुद्ध-बुद्धक स्वभाववाले परमात्मासे विपरीत मोहके उदयंसे बांधता है, ऐसा जानकर वह मोह ही त्यागनेके योग्य है / यह इस गाथाका भावार्थ है // 52 // ___अब जबतक योगी सूक्ष्म भी रागको नहीं छोड़ता है तब तक वह कर्मोसे मुक्त नहीं होता है, यह सूत्रकार प्रतिपादन करते हैं अन्वयार्थ (जाम) जबतक (जोई) योगी (समणम्मि) अपने मनमेंसे (परिमाणुमित्तरायं) परमाणुमात्र भी रागको (ण छंडेइ) नहीं छोड़ता है, तबतक (परमट्ठवियाणओ) परमार्थका ज्ञायक भी (स समणो) वह श्रमण (कम्मेण) कर्मसे (ण मुच्चइ) नहीं छूटता है।